क्या जंगली जानवरों को पालतू जानवरों और मनुष्यों के समान तरीकों से नुकसान पहुंचाया जा सकता है?

क्या जंगली जानवरों को पालतू जानवरों और मनुष्यों के समान तरीकों से नुकसान पहुंचाया जा सकता है?

बहुत से लोगों के पास जंगली जानवरों का रोमांटिक दृश्य है; उन्हें लगता है कि जंगली जानवरों को उनके पर्यावरण ने मजबूत बना दिया है और उन्हें दर्द महसूस नहीं होता है, या कम से कम, यह उस हद तक महसूस नहीं होता जितना मनुष्य और पालतू जानवरों को होता हैं ।

एक अन्य दृश्य के अनुसार, वे मनुष्यों और पालतू जानवरों से अलग हैं, जबकि वे दर्द का अनुभव करते हैं, वे अपनी कठिन परिस्थितियों में मदद चाहते हैं ।

ये विचार बस असत्य हैं । जिन महत्त्वपूर्ण कारणों से हमे यह विश्वास है कि मनुष्य और पालतू जानवर सचेत है वही कारण जंगल में रहने वाले जानवरों पर भी लागू होते हैं । जानवरों को होने वाली कई पीड़ा मनुष्यों द्वारा कैद या कष्ट पहुंचाने से असंबंधित हैं ।

जंगली जानवरों को भी पालतू जानवरों की तरह ही पीड़ा होती है

कई जंगली जानवरों के पास नर्वस सिस्टम होते हैं जो हमारे अपने नर्वस सिस्टम से बहुत अलग नहीं होते हैं। वास्तव में, कई जानवरों के नर्वस सिस्टम उनके समान होते हैं जिन्हें मनुष्य आमतौर पर सचेत मानते हैं। भेड़ियों और कुत्तों, जंगली बिल्लियों और पालतू बिल्लियों, जंगली पक्षियों और मुर्गियों, या सूअरों और जंगली सूअरों के बीच न्यूनतम मतभेद माने । यह विश्वास करना मुश्किल लगता है कि उनमें से केवल कुछ संवेदनशील हो सकता है या कि कुछ दूसरों की तुलना में कम पीड़ित होते हैं । सिर्फ इसलिए कि उनमें से कुछ पालतू हो गए हैं इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी महसूस करने की क्षमता अलग है । संवेदनशील जानवरों को महसूस करने और पीड़ित होने की क्षमता, उनके शारीरिक विज्ञान की वजह से है, उनकी परिस्थितियों या मनुष्यों से करीबी के कारण नहीं, या मनुष्यों द्वारा उनका उपयोग करने के तरीकों के कारण नहीं है ।

फिर भी यह सोचने की प्रवृत्ति होती है कि चोट, भूख, दर्द और भय के लगातार खतरे, जंगली जानवरों को मनुष्यों या पालतू जानवरों के सापेक्ष इन पीड़ा के प्रति कम संवेदनशील बनाते हैं। फिर भी, इस निष्कर्ष का समर्थन करने के लिए बहुत कम सबूत हैं । शारीरिक नुकसान के अलावा, जंगल में जीवित रहने के लिए अक्सर ही यह आवश्यक है कि वे वातावरण में आने वाले खतरों के लिए सतर्क रहे और उत्तरदायी हो । इन खतरों की संख्या और गंभीरता को देखते हुए, कई जंगली जानवरों को जीवन भर, लगातार तनाव का अनुभव होता है । 1 शिकारियों का डर इस का एक प्रमुख कारण है । 2 कई सामाजिक जानवरों को अपने परिवार के सदस्यों और साथियों की मौतों के बाद दुख और दर्द का अनुभव होता है, और गैर सामाजिक जानवरों को अपनी सुरक्षा के लिए अपने परिवेश में सतर्कता की एक निरंतर स्थिति बनाए रखनी होती है ।3 जबकि जंगल में रहने वाले सभी जानवरों को इन स्थितियों से उत्पन्न मनोवैज्ञानिक पीड़ा गंभीर मात्रा में नहीं होती है । , यह दूसरों के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है ।4

जो जानवर बचपन में जीवित बच जाते है , वे अभी भी बहुत कम उम्र में चोट, बीमारी, भूख या शिकार होने के कारण मर जाते हैं ।5 मनुष्यों और कई पालतू जानवरों की तरह, इनमें से कुछ जानवर जीवित संतानों की छोटी संख्या को जन्म देते हैं । हालांकि, अधिकांश जानवरों में बड़ी संख्या में संतान होती हैं, और उनमें से अधिकांश बहुत कम आयु में ही मर जाते हैं। इस प्रक्रिया में वे जो पीड़ा से गुजरते हैं, उसके अलावा, मृत्यु इन जानवरों के लिए एक नुकसान है क्योंकि यह उन्हें भविष्य के सकारात्मक जीवन के अनुभवों से वंचित करता है जो उन्होंने अन्यथा किया होगा ।

इन बातों को देखते हुए और , विज्ञान या शरीर विज्ञान के तथ्यों केअनुसार , यह दवा कि जंगली जानवरों को कष्ट नहीं पहुंचाया जा सकता, यह दावा गलत है ।

प्राकृतिक हानि जानबूझ कर पहुचाए गए नुकसान से बेहतर नहीं है

कुछ लोग प्रकृति में रहने वाले जानवरों की मदद करने का विरोध करते हैं क्योंकि वे मानते है की पीड़ा जंगली प्राणियों के जीवन का एक प्राकृतिक भाग है । सोचने का यह तरीका प्रकृति के लिए याचना नामक भ्रम पर आधारित है, जिसमें यह माना जाता है कि क्योंकि अगर कुछ स्वाभाविक है, तो वह अच्छा ही होगा , या कम से कम एक बुराई जिसे हमें खत्म करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। क्या वास्तव में, दुख जब तक स्वाभाविक है तो ठीक है? मानव दुख के लिए हमारा ऐसा नज़रिया नहीं है । हम बस इस बात की परवाह करते हैं कि यह उस व्यक्ति को पीड़ित कर रहा है जो इसे अनुभव कर रहा है ।

कुछ लोग जंगली जानवरों की मदद करने का विरोध करते हैं क्योंकि वे पारिस्थितिकी प्रणालियों जैसी संस्थाओं के बारे में परवाह करते हैं। वे तर्क दे सकते हैं कि प्राणियों की पीड़ा पारिस्थितिकी प्रणालि के कामकाज में योगदान देता है। स्पष्ट होते हुए , पारिस्थितिकी प्रणालि जैसी अमूर्त इकाई को बदला जा सकता है या क्षतिग्रस्त भी किया जा सकता है, लेकिन इसे वास्तव में लाभ या नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है। जैसा कि प्रासंगिकता से तर्क से पता चलता है, जब नुकसान पहुंचाए जाने की या लाभ की बात आती है, तो निर्धारण कारक यह है कि क्या पारिस्थितिकी प्रणालि में एक प्राणी – संवेदनशील जानवर है – दुख और खुशी का अनुभव कर सकता है ।6

अगर हम अधिकांश जंगली जानवरों के समान परिस्थितियों में रहने वाले मनुष्यों पर विचार करें तो हम चिंता की ऐसी कमी नहीं दिखाएंगे । यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मनुष्यों को हानिकारक प्राकृतिक परिस्थितियों (जैसे, अकाल, रोग) में मदद प्राप्त होनी चाहिए, भले ही वे जिस दुख का अनुभव करते हैं, वह प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालि की अखंडता में योगदान देता हो या नहीं। चूंकि प्रजातियों को नैतिक चिंता की सीमा के रूप में मानने के कोई अच्छे कारण नहीं हैं, इसलिए जब जंगली जानवरों की मदद करने की बात आती है तो हमें एक अलग रवैया नहीं रखना चाहिए ।

जब हम निष्पक्ष तरीके से रोके जा सकने वाले नुकसान पर विचार करते हैं, तो पालतू जानवरों या मनुष्यों जैसे विशेष पशुओं को केवल कुछ नुकसान पहुंचाने का विरोध करने का कोई मतलब नहीं है । फिर भी पशु शोषण का विरोध करने वाले कई लोग प्रकृति में होने वाले जंगली जानवरों को होने वाले नुकसानों का विरोध नहीं करते। इस दृश्य के अनुसार, नुकसान समस्या नहीं है, बल्कि जिस तरह से यह होता है वह समस्या है । यदि यह स्वाभाविक रूप से होता है, तो इसके साथ कुछ भी बुरा या अस्वीकार्य नहीं है, केवल तभी जब मनुष्य पीड़ा का कारण होता है यह बुरा और अस्वीकार्य है ।

दूसरों का तर्क है कि जब जानवरों को प्राकृतिक नुकसान पहुँचाया जा सकता है तो जानबूझकर जानवरो को पीड़ा पहुँचाना भी स्वीकार होना चाहिए। । उनका मानना है कि पशु शोषण ठीक है क्योंकि अन्य जानवर जंगली में स्वाभाविक रूप से पीड़ित होते हैं । फिर भी वे मनुष्यों के बारे में ऐसा ही दावा नहीं करते ।

फिर भी प्राकृतिक हानि से दुख और जानबूझकर पहुँचाया गया नुकसान का दुख , दोनों सामान है। और ऐसे ही प्राकृतिक सुख का अभाव, आदि सुख का अभाव के सामान है ,चाहे कोई भी प्रभावित हो या किसी भी तरीके से ।

जंगली रहने का मतलब अच्छी तरह से रहना नहीं है

क्योंकि भयानक पीड़ा जो पशु शोषण के कारण होती है, हम सोच सकते है कि जानवर एक अच्छी स्थिति में है जब वे कैद में नहीं रह रहे हैं । कई लोगों का मानना है कि जानवरों का जीवन प्रकृति में सुखी और संपन्न है क्योंकि वे अपने मर्जी से गतिविधियाँ करने के लिए स्वतंत्र हैं । 7 लेकिन स्वतंत्रता का मतलब स्वचालित रूप से एक अच्छा जीवन नहीं है ।

स्वतंत्रता के सिद्धांतकारअक्सर बताते हैं कि स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि एक प्राणी को कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है। बल्कि, स्वतंत्रता के लिए, एक प्राणी जो करना चाहे वो कर सके , जिस तरह से वे जीना चाहते है उसके अनुसार कार्य करने में सक्षम होने की आवश्यकता है । जंगल में रहने वाले प्राणी के विशाल बहुमत सहित अधिकांश जानवर इन मामलों में स्वतंत्र नहीं हैं, इसलिए उनकी स्वतंत्रता सीमित है ।

एक गरीब बच्चे के मामले पर विचार करें, जो खेलने और स्कूल जाने के बजाय, भुखमरी से बचने के लिए बहुत कम पैसे के लिए कठोर स्थिति में काम करना सहना पड़ता है । ऐसी परिस्थितियों में रहने वाले बच्चों को इस अर्थ में गुलाम नहीं है क्योकि उनके पास काम नहीं करने का विकल्प है, लेकिन यह देखते हुए कि विकल्प मृत्यु है, हम यह दावा नहीं कर सकते कि वे किसी भी सार्थक अर्थ में स्वतंत्र हैं। यह बहुत जंगली जानवरों की स्थिति है जो अपने अस्तित्व के लिए लगातार खतरों का सामना करना पड़ता है और गंभीर कष्ट उठाना पड़ता है जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता है । जब विकल्प मृत्यु है, एक कठिन जीवन चुनने के बजाए सहा जाता है, और इसे वास्तव में स्वतंत्रता नहीं माना जा सकता है ।

दरअसल, ज्यादातर जानवर किसी भी स्वतंत्रता का आनंद कभी नहीं ले पाते है क्योंकि वे शीघ्र ही अस्तित्व में आने के बाद मर जाते हैं । उनकी मृत्यु की परिस्थितियां लगभग हमेशा मर्ज़ी के बजाय मौके पर आधारित होती हैं, और उनके कम आयु के जीवन का मतलब है कि उनके पास शायद ही कभी अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग करने का अवसर होता है ।8 यह ज्यादातर जानवरों का भाग्य है, क्योंकि उनमें से लगभग सभी के बड़ी संख्या में संतान होती है, कुछ एक समय में सैकड़ों, हजारों या यहां तक कि लाखों अंडे देते हैं । उनके आबादी कि स्तिरता बने रहने के लिए , उनके अधिक संतानों का मृत्यु होना जरुरी है ।

स्वतंत्रता मनुष्यों के लिए संतुष्टिदायक हो सकता है जब हमारी कई जरूरते पूरी हो जाती है और कई विकल्प हमारे लिए उपलब्ध है जिससे हम अपने जीवन के पाठ्यक्रम का फैसला कर सकते है । हालांकि, इन विकल्पों के बिना, हम अकेले स्वतंत्रता को एक अच्छे जीवन जीने के लिए पर्याप्त नहीं मानंगे ।9 कुछ ने तर्क दिया है, कि वास्तव में , हमारी खुशी या दर्द का अनुभव करने की क्षमता ही मायने रखता है । दूसरों कुछ लोगो का तर्क है की अच्छे जीवन की विशेषता है की हमारी प्राथमिकताओं को पूरे होने या ना बिगड़ने की संभावना पर निर्भर करता है । फिर भी और दूसरों का तर्क है कि स्वतंत्रता, अगर एक अच्छी बात है, तो वह केवल कई आवश्यक ज़रूरतों के बीच एक है और अंय ज़रूरते और अधिक भलाई और एक अच्छा जीवन के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है ।

आज़ाद होने से आपको ऐसी चीजें हासिल करने में मदद मिल सकती है जो आपके लिए अच्छी हैं। हालांकि, यदि आपकी स्वतंत्रता केवल आपको दर्द से मृत्यु की अनुमति देती है, जैसा कि अक्सर जंगली जानवरों के मामलों में होता है, तो ऐसी स्वतंत्रता आपका भला करने वाला नहीं है ।

क्षमताएं और किसी की स्वाभाव की पूर्ति

कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि जंगल में जंगली जानवरों को अपने वास्तविक स्वभावो को पूरी तरह से व्यक्त करने और पूरा करने या उनके जीव विज्ञान के अनुसार अपनी क्षमताओं को विकसित करने की अनुमति मिलती है। हालांकि, यह संभावना नहीं है कि प्रकृति में रहना , इस तरह के एक जीवन की गारंटी देता है, खासकर जब हम मानते है कि ज्यादातर जानवर, ऐसा होने के लिए लम्बे समय तक जीवित नहीं रहते । किसी के स्वभाव के अनुसार जीने के लिए जीवित रहना पड़ता है। जब हम उन मानव शिशुओं पर विचार करते हैं जो जन्म के कुछ समय बाद मर जाते हैं, तो हम इस बारे में बात नहीं करते कि उन्हें अपनी क्षमताओं को विकसित करने या अपने स्वभाव को पूरा करने की स्वतंत्रता से कितना लाभ हुआ । बहुत कम जीवन जीने वाले प्राणी जो मात्र कुछ घंटे या मिनट की होती है , क्षमताओं का आनंद नहीं ले सकते क्योंकि उन्हें विकसित करने का अवसर नहीं मिला । तो, यहां तक कि अगर हम उनकी मौत जो अक्सर भयानक और दर्दनाक होती है को अलग रखे और सिर्फ इस बात पर ध्यान केंद्रित करे कि क्या वे अपनी क्षमताओं का विकास और उनके स्वभाव को पूरा कर सकते हैं, यह स्पष्ट है कि वे इतने कम जीवन में नहीं कर सकते है ।10


आगे की पढ़ाई

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टिप्पणियाँ

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2 Laundré, J. W.; Hernández, L. & Altendorf, K. B. (2001) “Wolves, elk, and bison: Reestablishing the ‘landscape of fear’ in Yellowstone National Park, U.S.A.”, Canadian Journal of Zoology, 79, pp. 1401-1409. Horta, O. (2010) “The ethics of the ecology of fear against the nonspeciesist paradigm: A shift in the aims of intervention in nature”, Between the Species, 13 (10), pp. 163-187 [अभिगमन तिथि 12 जून 2019]. Clinchy, M.; Sheriff, M. J. & Zanette, L. Y. (2013) “Predator-induced stress and the ecology of fear”, Functional Ecology, 27, pp. 56-65 [अभिगमन तिथि 25 नवंबर 2019]. Bleicher, S. S. (2017) “The landscape of fear conceptual framework: Definition and review of current applications and misuses”, PeerJ, 5 (9) [अभिगमन तिथि 2 अगस्त 2019]. Kohl, M. T.; Stahler, D. R.; Metz, M. C.; Forester, J. D.; Kauffman, M. J.; Varley, N.; White, P. J.; Smith, D. W. & MacNulty, D. R. (2018) “Diel predator activity drives a dynamic landscape of fear”, Ecological Monographs, 88, pp. 638-652 [अभिगमन तिथि 24 मार्च 2019]. Zanette, L. Y.; Hobbs, E. C.; Witterick, L. E.; MacDougall-Shackleton, S.A. & Clinchy, M. (2019) “Predator-induced fear causes PTSD-like changes in the brains and behaviour of wild animals”, Scientific Reports, 9 [अभिगमन तिथि 13 दिसंबर 2019].

3 Brakes P. (2019) “Sociality and wild animal welfare: Future directions”, Frontiers in Veterinary Science, 6 [अभिगमन तिथि 3 दिसंबर 2019].

4 Rachels, J. (2009) “Vegetarianism”, Philosopher James Rachels (1941-2003) [अभिगमन तिथि 17 दिसंबर 2012].

5 EFSA – European Food Safety Authority (2007 [2005]) “Opinion of the Scientific Panel on Animal Health and Welfare (AHAW) on a request from the Commission related to the aspects of the biology and welfare of animals used for experimental and other scientific purposes”, EFSA Journal, 292, pp. 1-46 [अभिगमन तिथि 14 जून 2019].

6 देखे Bernstein, M. H. (1998) On moral considerability: An essay on who morally matters, Oxford: Oxford University Press; (2015) The moral equality of humans and animals. Basingstone: Palgrave MacMillan.

7 यह भी तर्क किया गया है कि जानवरो मे अपने लिए चुनाव करने की क्षमता है और इसके अनुसार उनके लिए यह बेहतर है कि उन्हें जंगल मे उनके समुदाय के साथ रहने दिये जाए जो कि एक राजनीतिक इक्काई होगी जिनका हम्मे उन्हें सम्मान देना चाहिए। इसके अनुसार उनका मदद करना सही होगा लेकिन केवल इन समुदायों के बने रहने के लिए मदद के रूप में। इसका अर्थ है कि स्वीकार करने योग्य हस्तक्षेप तभी होगा जब तक कि यह जरूरी नहीं है , जब तक हम जानवरों के समुदाय जिसकी हम मदद कर रहे हैं , वे बुरी स्तिथि का सामना कर रहे है तो यह मदद और लंबे समय के लिये जारी नहीं रह सकती ज हमने की है। Donaldson, S. and Kymlicka, W. (2011) Zoopolis: A political theory of animal rights. Oxford: Oxford University Press.

इस विचार के आलोचक यह सवाल उठाते हैं कि जंगल में रहने वाले अधिकतर जानवर बहुत दुःख सहते हैं , कि उन्हें अकेले छोड़ना उनके लिए बहुत बुरा हो सकता है ,यह अनुमान कि जानवरों के समुदाय केवल उन स्थिति में सही हैं जिसमे कुछ सामाजिक जानवर प्रकृति में अल्प्संक्यक के रूप में हैं और यह कि हमें सभी जानवरों की परवाह करने चाहिए ,इस बात को बुलकर की वह किसी समूह से संबंधित हैं। देखे Horta, O. (2013) “Zoopolis, intervention and the state of nature”, Law, Ethics and Philosophy, 1, pp. 113-125 [अभिगमन तिथि 14 सितंबर 2019]; Cochrane, A. (2013) “Cosmozoopolis: The case against group-differentiated animal rights”, Law, Ethics and Philosophy, 1, pp. 127-141 [अभिगमन तिथि 14 सितंबर 2019]; Mannino, A. (2015) “Humanitarian intervention in nature: Crucial questions and probable answers”, Relations: Beyond Anthropocentrism, 3, pp. 109-120 [अभिगमन तिथि 14 सितंबर 2019].

8 देखे : यशायाह बर्लिन का एस्से Berlin, I. (1958) Two concepts of liberty; an inaugural lecture delivered before the University of Oxford, on 31 October 1958, Oxford: Clarendon; Gray, T. (1991) Freedom, London: Macmillan; Miller, D. (ed.) (1991) Liberty, Oxford: Oxford University Press.

9 यह इस दावे से अलग है कि स्वतंत्रता तब मायने रखती है जब उसका स्वायत्तता से कोई लेना-देना हो, जो कि अल्साडेयर कोचरन जैसे सिद्धांतकार केवल कुछ जानवरों का दावा करते हैं, लेकिन दूसरों का नहीं। देखें, Alasdair Cochrane claim only some animals, but not others, have. See Cochrane, A. (2011) Animal rights without liberation, New York: Columbia University Press.

10 इस पर देखें Nussbaum, M. C. (2006) Frontiers of justice: Disability, nationality, species membership, Cambridge: Harvard University Press, ch. 6.