भोजन हेतु जानवरों का वध (कत्ल)

भोजन हेतु जानवरों का वध (कत्ल)

पशु उत्पाद बनाने का अर्थ है अमानुष जानवरों की हत्या करना । यह मांस, चमड़े, फर और जानवरों के मांस से बने अन्य उत्पादों के मामले में यह काफी सामान्य है । किन्तु जानवर तब भी मारे जाते हैं जब वे अन्य उद्देश्यों हेतु शोषित किए जाते हैं जैसे कि दुग्ध उत्पाद और अंडे । युवा गायें और चूज़े (मुर्गियां) ज़्यादा दूध और अंडे उत्पादित करती हैं, और दूध देने वाली गायें और अंदा देने वाली मुर्गियां मार दी जाती हैं जब उनका शोषण नए जानवर पैदा करने और उनका शोषण करने की बजाय कम लाभदायक होता है ।

भोजन के लिए पाले जाने वाले जानवरों की छोटी मात्रा फैक्ट्री (औद्योगिक) खेतों की बजाय छोटे खेतों पर पैदा की जाती है । छोटे खेतों का बचाव करने वाले दावा करते हैं कि उन पर पाले गए जानवरों से फैक्ट्री खेतों के जानवरों कि बजाय बेहतर व्यवहार किया जाता है । हालांकि, ये मायने नहीं रखता कि वें किन परिस्थितियों में पले हैं, खेतों के सारे जानवर अंततः मारे जाने के लिए कत्लखाने भेज दिए जाते हैं

जानवरों के लिए मौत एक हानि है क्योंकि, सकारात्मक अनुभवों की क्षमता के साथ होते हुए, उनकी जीवित रहने में रुचि है । कत्लखानों में, जानवर मारने से पहले भय और तकलीफ का भी अनुभव करते हैं । कुछ यातनाएं जिनसे वे गुजरते हैं वे नीचे दी गई है, जलीय जानवरों से शुरू हो कर, जो खेती वाले जानवरों की बहुलता पूरी करते हैं ।

मत्स्य कृषि

जबकि संवेदनशील जलीय जानवरों को जंगल में बिना उन्हें पीड़ा पहुंचाए पकड़ना वास्तव में असम्भव है, हम सोच सकते हैं कि खेत वाली मछलियों के लिए चीजें अलग हैं । लेकिन वे बहुत अलग नहीं हैं । पीड़ा की मात्रा और प्रकार जो मछलियां और अन्य जलीय संवेदनशील जानवर कत्ल के दौरान सहते हैं,1 और इससे पहले भी, एक तरीके के दूसरे पर बदलता है । किन्तु सभी तरीके काफ़ी दर्द और विपत्ति के कारक होते हैं और अंत में वे सभी मर जाते हैं । मछलियों को मारने के लिए जो तरीके अपनाए गए हैं, उनमें निम्नलिखित शामिल हैं:2

1. दम घुटना – मछलियां पानी से बाहर निकाली जाती हैं और धीरे – धीरे घुटती हैं क्योंकि वे केवल अपने गिल्स के द्वारा पानी से ऑक्सीजन ग्रहण कर सकती हैं । उन्हें मारने में 15 मिनट तक लग सकते हैं ।3

2. द्रुतशीतन – मछलियां बर्फ़ या लगभग जमे हुए पानी में डाल दी जाती हैं, जो हिप्टोथर्मिया और मौत का कारक होता है । यह तरीका आवश्यक रूप से दर्द के प्रति संवेदना को कम नहीं करता, जैसा कि इस तथ्य द्वारा इंगित किया गया है कि तापमान में कमी जानवरों में कोर्टिसन के स्तर में एक बढ़ोत्तरी से सम्बन्धित (सापेक्षित) है ।4

3. कार्बन डाइऑक्साइड नर्कोसिस (निद्रावहन) – मछलियां टैंकों में डाली जाती हैं जिसका पानी उच्च कार्बन डाइऑक्साइड युक्त होता है । उच्च सांद्रता में घुले कार्बन डाइऑक्साइड वाले पानी का मछलियों के सांस लेने पर मादक प्रभाव हैं । यह मछलियों को अचेत करता है, किन्तु प्रक्रिया धीमी है, और जैसे ही कार्बन डाइऑक्साइड उन्हें प्रभावित करना शुरू करती है, वे हिंसक रूप से आसपास घूमती हैं और बाहर निकलने का प्रयास करती हैं । वे वैज्ञानिक साहित्य में कहे जाने वाले “प्रतिकूल व्यवहार”5 का प्रदर्शन करती हैं, जो कि उनके तनावग्रस्त होने का एक मजबूत संकेत है ।

4. बिना अचेत किए रक्त (ख़ून) निकालना – मछलियां पानी से बाहर निकाल ली जाती हैं, और मानव द्वारा पकड़े जाने के दौरान, उनके गिल्स और हृदय चाकू से काट दिए जाते हैं जिससे कि वे मरने तक रक्त बहायें । यह प्रक्रिया चार से पंद्रह मिनट के बीच या उससे अधिक हो सकती है, जिस दौरान मछलियां सचेत और संघर्षशील रहती हैं, वैसे ही जैसे अन्य जानवर उनकी स्थिति में होते ।6

कभी – कभी मछलियों को मारने से पहले उन्हें अचेत करने का प्रयास किया गया है । यहां कई अचेत (बेहोश) करने वाले तरीके प्रयोग में लाए गए हैं ।

आघाती बेहोशीकरण – जानवर लकड़ी या प्लास्टिक के ईंटों से मारे जाते हैं जिससे वे अपना होश खो देते हैं ।

विद्युतीय बेहोशकरण – यह तरीका बड़ी मछलियों के साथ प्रयोग किया जाता है । मछलियां एक भाले (बरछी) से घोंप दी जाती हैं जिसमें विद्युत जोड़ (विद्युत धारा) होता है । कुछ मामलों में, यह काम नहीं करता और मछलियां रक्त बहने से मरने के दौरान सचेत (होश) में बनी रहती हैं ।7

अन्य मामलों में, कम से कम सिद्धांत में, मछलियां इस तरह से मारी जाती हैं जो उन्हें कम पीड़ा पहुंचाते हैं, जैसे कि उनके सिर में गोली मारना ।

कत्लख़ाने

स्थलीय कत्लखाने जिनमें स्तनधारी और पक्षियों को मार जाता है वहां चीज़ें बहुत अलग नहीं हैं । स्तनधारी और पक्षी भी भय और दर्द (तकलीफ़) का अनुभव करते हैं, साथ ही साथ अपने जीवन से वंचित होते हैं । कई देशों में जब जानवरों को मार जाता है उससे पहले उन्हें अचेत (बेहोश) करना तय किया गया है जिससे वे पीड़ित ना हों, या जितना हो सके कम पीड़ित हों ।

कत्लखानों में जानवर भयानक मानसिक पीड़ा से भी गुजरते है । इसके अलावा वे कहां हैं इस बात से अनजान, वे दूसरे जानवरों को मरते हुये देखते हैं, और उनका रोना सुनते हुए पीड़ित (तनावग्रस्त) होते हैं ।8

मारने (कत्ल करने वाली) इकाइयों तक परिवहन

कत्लखाने तक के अपने सफ़र के दौरान, जानवर एक साथ भीड़ भरे होते हैं और अक्सर अधिकतम तापमान से कम सुरक्षा में होते हैं । आमतौर पर उन्हें सफ़र में खिलाया नहीं जाता क्योंकि यह किसानों के आर्थिक हित में नहीं है कि उन्हें भोजन देना जहां इसके पचने के लिए और थोड़ा और मांस में तब्दील होने हेतु समय ना हो,9 और क्योंकि यह ट्रक चालक और कत्लखाना कार्यकर्त्ताओं के लिए भी आसान है यदि उन्हें जानवर के मल साफ़ नहीं करना है ।

सामान्यतः जानवर कमज़ोर शारीरिक और मानसिक हालत में कत्लखाने पहुंचते हैं । वे भूखे, जीर्ण, और अक्सर उलझन में और भयग्रस्त होते हैं । जब वे कत्लखाने के जाए जाते हैं, तो यहां अन्य कारक हैं जो उनके संकट और तकलीफ़ को बढ़ा सकते हैं जैसे फिसलाऊ (चिकनी) सतह । यदि कोई जानवर गिरे, तो उनके पीछे दूसरे भी चोटिल हो सकते हैं ।

कभी – कभी जानवर कत्लखाने में मारे जाने के पहले धोये जाते हैं । अक्सर यह प्रेशर वॉशर (तेज़ दबावयुक्त पानी की धोने की मशीन) से किया जाता है, जो उन्हें दर्द पहुंचा सकता है, अक्सर संवेदनशील अंगों में । पानी का तापमान भी जानवरों को तकलीफ़ (चोट) पहुंचा सकता है, और उन्हें यह प्रक्रिया काफ़ी तनावभरी लग सकती है ।

इसके अलावा, अक्सर जानवर ट्रकों से उतारे जाते हैं और हिंसक रूप से चलने और उनके कत्लखाने के रास्ते में घेरा (गाड़ी की रेलिंग) पकड़ने के लिए बाध्य किए जाते हैं । कभी – कभी हुक (अंकुड़ा) प्रयोग में लाए जाते हैं । एक कत्लखाना कार्यकर्त्ता ने बताया ।

“ सूअर काफ़ी आसानी से तनावग्रस्त हो जाते हैं । यदि आप उन्हें बहुत खिजलाएं (ठेस पहुंचाए), तो उन्हें हृदय आघात हो जाता है । यदि आप एक सूअर को ढलान पर ले जाएं जिसे ख़ुद से बाहर मल निकालना था और हृदय आघात है और चलने से इंकार कर दिया है, आप एक मांस हुक (मांस निकालने का हुक) लेते हैं और इसके गुदाद्वार में फंसा देते हैं । कमर की हड्डी कतर (काट) कर आप यह करने का प्रयास करते हैं । फ़िर आप उसे पीछे की ओर खींचते हैं । आप इन सूअरों को जीवित खींच रहे हैं, कईयों बार मांस हुक गुदाद्वार से बाहर निकल जाता है । मैंने आंतें बाहर आते भी देखा है । यदि सूअर ढलान के सामने पास में गिर जाता है, तो आप मांस हुक उसके गाल में फंसा देते हैं और उसे आगे की ओर खींचते हैं ।10

कुछ मामलों में, जानवर कत्लखाने के एक हिस्से में फंस सकते हैं, और फिर उन्हें आगे बढ़ाने के लिए किसी भी तरह की हिंसा प्रयोग में लाई जा सकती है । अन्य कत्लखाने के कार्यकर्त्ता का एक बयान इसे स्पष्ट रूप से दिखाता है ।

मैंने गायों को उनकी हड्डियां टूटनी शुरू होने तक नशा दिया है, जबकि वे जीवित रहती हैं । उन्हें किनारे पर ले जाना और द्वार के रास्ते पर फंस जाती हैं, बस उनकी ख़ाल उतरने तक उन्हें खींचें, तब तक जब तक कि रक्त स्टील और कॉन्क्रीट पर टपके । उनके पैर तोड़कर, और गाय जीभ बाहर निकाल कर रो रही होती है । वे तब तक खींचते हैं जब तक कि गर्दन टूट जाए ।11

स्थिरीकरण

कत्लखाना इकाइयों में, मारने से पहले जानवरों को बेहोश किया जाना होता है । कुछ जानवर (जैसे कि सूअर और भेड़) अक़्सर स्थिरीकरण के बग़ैर बेहोश (अचेत) कर दिए जाते हैं । कार्यकर्त्ता सीधे जानवर के पास जाते हैं और उन्हें बेहोश (या बेहोश करने का प्रयास) करते हैं, बिजली के अंकुश वाली विधि से । वे एक ही समूह के अलग – अलग जानवरों के साथ बार – बार ऐसा करते हैं ।

यह विधि बड़े जानवरों जैसे गाय के साथ काम नहीं करती क्योंकि उन्हें बेहोश करने के लिए अंकुश उनके ऊपर नहीं लगाया सकता । बेहोशीकरण की प्रक्रिया को आसान बनाने और जानवरों द्वारा भागने का प्रयास करने के दौरान उनसे कार्यकर्त्ताओं को होने वाली संभावित चोटों से बचाने के लिए, बड़े जानवर बेहोश करने और मारने से पहले स्थिरीकृत किए जाते हैं । स्थिरीकरण के निम्नलिखित तरीके प्रयोग में लाए जाते हैं ।

बेहोश करने वाले पारंपरिक बक्से : ये बंद जगहें होती हैं जहां जानवर बेहोश किए जाने के लिए रखे जाते हैं । बक्सा संकरा होता है जिससे जानवर पीछे नहीं घूम सकते, और फिसलने या गिरने से बचाने के लिए बक्से की सतह खुरदुरी होती है12 बेहोश करने का काम करने वाला व्यक्ति आमतौर पर जानवर को शूट करने के लिए बक्से के बगल में खड़ा होता है । कभी कभार, कार्यकर्त्ता शूटिंग में असफल हो जाता है और जानवर उत्थापन और रक्त बहने के दौरान होश में बचा रहता है ।

सिर दबाने के लिए यंत्र वाले बक्से : इन बक्सों में सिर दबाने का एक यंत्र होता है जो जानवरों कि गर्दन के चारों ओर बंद हो जाता है, इस तरह इनका सिर दबाया जाता है । कुछ देशों में इस तरह के बक्से आवश्यक है जब कभी भी जानवर अभेदक विधियों से बेहोश किए जाते हैं, जबकि उन्हें ज़्यादा स्पष्टता की जरूरत होती है जब शूटिंग प्रभावी तरीके से करनी हो ।

घुमावदार घेरे (रेल) : ये स्वचालित घेरे (रेल) हैं जो जानवर को बेहोश करने वाले क्षेत्र में ले जाते हैं । वे W के आकार में सुयोजित होते हैं जिससे जानवरों के पैर हर समर अलग रहें, यह तय करते हुए कि वे पीछे ना मुड़ सकें ।

पक्षियों का स्थिरीकृत रखने का तरीका, उन्हें बेहोश करने के दौरान अलग होता है । वे वाहक पट्टे पर नीचे से ऊपर की ओर खींचे जाते हैं जो जानवरों को बेहोश करने वाले टैंकों तक ले जाता है, जिसे नीचे समझाया गया है । अक्सर पक्षी घायल हो जाते हैं और उनके पैर या शरीर के अन्य अंग टूट जाए हैं जब उन्हें अचानक और कभी – कभी हिंसक रूप से पट्टे पर से पकड़ा या लटकाया जाता है । एक पूर्व कत्लखाना कार्यकर्त्ता वर्जिल बटलर, जिन्होंने बाद में पश्चाताप किया और एक पशु कार्यकर्त्ता बन गए, नीचे दिए अनुसार समझाया ।

“ पंक्ति दौड़ रही है, महक भद्दी है और चूज़े डर रहे हैं । उनमें से कई ज़ोर से चीख रहे हैं, कुछ कांपते हुए सिर्फ़ बैठे हैं । कभी – कभी आप एक को अपनी ओर देखते हुए पाते हैं, आंखों से आंखों में, और आप जानते हैं यह भयानक है । “13

बेहोश करना

एक बार पर्याप्त रूप से एक जानवर का स्थिरीकृत हो जाने पर (या कभी – कभी, छोटे जानवरों को, बिना उनका स्थिरीकरण किए), उन्हें बेहोश करने का एक प्रयास किया जाता है जिससे कि वे मारने के वक़्त होश (सचेत) में ना हों । यह अलग – अलग तरीकों से किया जा सकता है ।

विद्युत सुषुप्ति

यह विधि जानवरों को एक विद्युत झटका (आघात) दिया जाता है जब तक कि वे बेहोश ना हो जाएं । इस प्रयोग की विधि जानवरों के प्रकार पर निर्भर करते हुए अलग है ।

पक्षी

विद्युत सुषुप्ति पक्षियों (जैसे कि चूज़े, मुर्गियां, टर्की, गीज, और बत्तख़) पर प्रयोग किया जाने वाला सबसे सामान्य तरीक़ा है । सबसे सामान्य कार्यान्वयन विद्युत युक्त पानी के टब में जानवरों के सिर डुबाना है ।14 80 मिली एम्पीयर की धारा 3 सेकंड तक प्रयुक्त की जाती है । उन्हें समानुक्रम के अगले चरण जहां उनके गले चीरे जाते हैं उससे पहले, हुकों पर लटकाए जानवरों और कुछ सेकंड के लिए विद्युतीय पानी वाले बड़े तब से खींचने के साथ यह प्रक्रिया आमतौर पर मशीनीकृत होती है ।

अध्ययन ने दिखाया है कि यह जानवरों के लिए बहुत दर्दनाक है । विद्युत धारा पूरे शरी र से होकर दौड़ती है, आमतौर पर कॉरोकोएड और स्कैपुला (कंधे की प्लेट) तोड़ने, मांसल संकुचन और रक्तस्राव का कारक होती है ।15

एक अध्ययन में, विद्युतीय पानी में डुबाए गए लगभग 44 प्रतिशत चूज़े हड्डियां टूटने से पीड़ित हुए और 35 प्रतिशत को रक्तस्राव हुआ । साथ ही, इस तरीके से बेहोश किए गए जानवरों में से आधे ने वेंट्रिकुलर फाइब्रिलेशन प्रदर्शित किया । यूरोपियन यूनियन में इस विधि की भाप विधि से तुलना करने वाले अध्ययन में समान परिणाम पाए गए ।16 इस विधि की प्रभावशीलता संशय में है जबकि यहां जलाने वाले टैंक से जानवरों के होश में आने की ख़बरें आई हैं ।

सुअर

सूअरों के मामले में, यहां विद्युत सुषुप्ति के दो तरीके हैं: विद्युत धारा का दिमाग से गुजरना, या विद्युत धारा का दिमाग़ और हृदय से गुजरना ।

1. विद्युत धारा (प्रवाह) का दिमाग़ से गुजरना । जानवर के सिर में एक विद्युत प्रवाह सीधे प्रयुक्त किया जाता है, एक मिर्गी का दौरा उत्पन्न करने के लक्ष्य के साथ । विद्युत प्रवाह कानों के नीचे सिर के दोनों तरफ दो इलेक्ट्रोड का युग्म से चिमटे के द्वारा प्रेरित किया जाता है । चिमटों में नुकीला भाग होता है जो जानवर की त्वचा को चेद कर उन्हें जगह पर पकड़े रहता है । एक और अन्य प्रकार एक इलेक्ट्रोड जबड़े के नीचे और दूसरा गर्दन के बग़ल में (कान के पीछे) लगाया जाता है । जब यह कार्य करता है, तो यह तरीका जानवरों को केवल 15 सेकंड में बेहोश कर देता है, और ही सकता है जानवर रक्तस्राव से मौत के पहले पुनः होश प्राप्त कर लें, इस तरह केवल दर्द से नहीं बल्कि घबराहट और कष्ट से भी पीड़ित होते हैं ।

2. विद्युत धारा (प्रवाह) का दिमाग और हृदय से गुजरना । यह हृदय आघात का कारक है । बेहोश करने की यह विधि आमतौर पर सीधे विद्युन्मारण ((बिजली से मौत) द्वारा मौत की कारक है । एक इलेक्ट्रोड माथे पर या काम के पीछे के खांचे पर लगाया जाता है, और दूसरा पीठ या शरीर के बगल में लगाया जाता है, जिससे विद्युत प्रवाह हृदय तक भी पहुंच ।

इन विधियों के लिए उस जगह को छीलने और नम करने की ज़रूरत होती है जहां विद्युत धारा के प्रवाह को सुगम करने के लिए इलेक्ट्रोड लगाए जाएंगे । क्षेत्र (जानवर के शरीर पर जहां इलेक्ट्रोड लगता है) को नम ना करने, जगह से इलेक्ट्रोड के हिलने, शरीर के एक अनिश्चित जगह को अचेत करने का यह तरीका लगाना, या बताए गए एंपीयर की बजाय एम्पीयर, जानवर को बिना बेहोश किए पक्षाघात का कारक हो सकता है (जिसे खोया हुए आघात या “लेडक की बुरे सपने की स्थिति के नाम से जानते हैं”) । इसका अर्थ है कि जानवर पूरी प्रक्रिया के दौरान जगा रहेगा और अनुगामी तनाव और दर्द से पीड़ित होगा । इसके अलावा, यदि इलेक्ट्रोड के बीच की दूरी बहुत कम है, तो हृदय आघात नहीं आता है ।

सबसे सामान्य निर्वहन उपकरण कम वोल्टता (70 – 150V) है, कुछ सेकंड के लिए प्रयुक्त होता है, इस समय के दौरान कभी – कभी जानवर बेहोश होने के पहले दर्दनाक निर्वहन से पीड़ित होते हैं । कई मामलों में निर्वहन निर्देशों के अनुसार प्रयुक्त नहीं होता, जो जानवर के लिए सामान्यीकृत और दर्दनाक पक्षाघात (यदि निर्वहन निम्नतम है), या हड्डी टूटने कि पीड़ा, इशिमोसिस, और रक्तस्राव (यदि निर्वहन उच्च है), अक्सर बिना बेहोश रहने का कारक हो सकता है । किन्तु यहां तक कि यदि वे प्रक्रिया द्वारा बेहोश होते हैं, जानवर होश खोने से पहले दर्द और भय से पीड़ित हो सकते हैं ।17

गाय

गायों के बड़े आकार के कारण विद्युत सुषुप्ति कभी-कभी इस्तेमाल किया जाने वाला तरीका है । जब गायों पर इसका इस्तेमाल होता है, तो विद्युत बेहोशीकरण दो चरणों में होना तय है । शरीर से अन्य निर्वहन के द्वारा, पहले सिर में कम से कम 1.5 एम्पीयर प्रयुक्त किया जाता है, जो हृदय आघात का कारक होना चाहिए ।18

गाय के लिए इलेक्ट्रोड्स का प्रयोग, हो सकता है उसे बेहोश ना करे ।19 स्थिरीकरण विधि पर निर्भर करते हुए, इलेक्ट्रोड को गाय के सिर पर सुरक्षित रखना कठिन हो सकता है जब वह जमीन पर गिरती है, जो उसे धक्का महसूस करने का कारक होगा । साथ ही, इलेक्ट्रोड्स का ग़लत तरीके से स्थापित होना पीठ में दरार (फ्रैक्चर), रक्तस्राव के साथ अन्य परेशानियों का कारक हो सकता है ।

गैसिंग (भाप देना)

इस तरह से अचेत करना कई देशों में प्रयोग किया जाता है । जानवर एक कक्ष में के जाए जाते हैं, जो आस्फीजिएटिंग गैस: आर्गन्, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, या इनके संयोजन से भरा होता है । यह जानवरों को चेतनाशून्य बना देता है ।

यहां गैस से विवश जानवरों की प्रतिक्रिया में बड़ी परिवर्तनशील है, जो आधारभूत रूप से जैविक कारकों पर निर्भर करती है । चेतना का खोना कभी तत्क्षण नहीं है, बल्कि यह 30 – 39 सेकंड लेता है ।20 गैस बेहद हिंसक प्रतिक्रियाएं और भागने के लिए आततायी प्रयासों का कारक हो सकती है, जो दर्शाता है कि यह तरीका बहुत दर्दनाक और तनावपूर्ण हो सकता है ।21

यांत्रिक बेहोशीकरण (मशीन से चेतनाशून्य करना)

यहां दो प्रकार के यांत्रिक बेहोशीकरण हैं:

भेदक

यह एक बंद बोल्ट पिस्टल से होता है । यह एक खींच लेने योग्य प्रक्षेप्य वार है जिसका अर्थ एक विस्फोटक कारतूस या संपीडित गैस है । प्रक्षेप्य प्रमस्तिष्कीय वल्कुट पर प्रहार करता है और बिना दिमाग़ मस्तिष्क में रुके अपनी असली जगह पर लौट आता है । यह स्थायी मस्तिष्क क्षति का कारक है ।

यहां पिस्टल का एक मॉडल (नमूना) है जो खुले छिद्र में पानी की धारा फेंकता है, जो मस्तिष्क22 को और क्षति पहुंचने का कारक होता है । दूसरा तरीका प्रक्षेप्य द्वारा बनाए छिद्र में तीली डालना होता है जो मस्तिष्क में विदारण (जो पंगु बनाता है) उत्पन्न करता है ।

अछेदक

एक यंत्र जिसका एक सिरा मशरूम के जैसा होता है, मस्तिष्क में बिना घुसे खोपड़ी पर वार करता है, उपयोग में लाया जाता है । मस्तिष्क आघात के परिणामस्वरूप बेहोशीकरण होता है ।23

मूसर या हथौड़ा मारना

यह कम आर्थिक संसाधनों वाली जगहों में सस्ता और सरल होने के कारण इस्तेमाल किया जाता है, हालांकि इसमें सही बिंदु (जगह) पर प्रहार करने और जानवर को अचेत करने के लिए काफ़ी हुनर की ज़रूरत होती है । असल में, जानवर को अचेत (बेहोश) करने के इस तरीके की सफलता के 50% है ।24 यह ज़रूरी है कि तेज़ी से कई वार किए जाएं, जो जानवरों के लिए भय, तनाव और दर्द का कारक है । कई बार, सुस्पष्टता में की कमी के कारण, जानवरों की गर्दन कट जाती है और वे पूर्णतः होश में रहते हुए धीरे – धीरे ख़ून बहने से मर जाते हैं ।

घरेलू विद्युतीय बेहोशीकरण (अचेत करना)

यह गरीब देशों में उपयोग (प्रयुक्त) किया जाता है । इसमें घर की बिजली से संबंधित चिमटे या तार का प्रयोग होता है । यह स्पष्ट नहीं है कि यह वास्तव में अपने शिकार को अचेत करता है; यह ख़ासतौर से गोजातीय और दूसरे बड़े जानवरों के मामले में नहीं है जो निम्न विद्युत धारा से अचेत नहीं होते हैं ।25 वे मरने के दौरान जितना पीड़ित होंगे, के साथ ही यह जानवरों के लिए काफ़ी पीड़ा का कारक होता है ।

अचेत किए बग़ैर स्थिरीकरण

मेरुदण्ड को चाकू से काट के अलग करना । यह खोपड़ी के जोड़ से मेरुदण्ड को धारदार चाकू से काटना है । यह पीड़ित जानवरों में तत्काल स्थिरीकरण का कारक है, लेकिन यह चेतना नष्ट नहीं करता, अतः जानवर खून बहने से मौत होने तक सचेतन (होश) में बचे रहते हैं ।

जानवरों को मारना (हत्या करना)

उन जगहों में जहां नियमन ज़रूरी है, जानवर अचेत करने की प्रक्रिया से गुजरते हैं, आमतौर पर उन विधियों में से एक को ऊपर समझाया गया है, जिसका इरादा उन्हें मारने से पहले, उन्हें सचेत या स्थिर बनाना है । क्योंकि कत्लखानों का उद्देश्य जानवरों को जितना जल्दी संभव हो सके मारना है, कई तब भी जीवित रहते हैं, जब उनके शरीर जला देने वाले टैंकों में से खींचे जाते हैं, और उनकी गर्दनें काटी जाती हैं और उनके शरीर विखंडित किए जाते हैं ।

गोजातीय

एक बार उनके बेहोशी करण के चरण से गुजर जाने पर, जिस दौरान वे बेहोश हो भी सकते हैं या नहीं भी, गाय, बैल, बछड़े, और सांड के पिछले पैर सीकड़ से बांध दिए जाते हैं और वे ऊपर से नीचे की ओर लटका दिए जाते हैं । फिर एक लम्बी चाकू से उनकी गर्दन काटी जाती है, जो गर्दन कि धमनी को अलग कर देती है, और वे खून बहने से मार जाते हैं । अगले चरण में, उनके सिर और पैर काट जाते हैं, उनके पाचन तंत्र बाहर निकाले जाते हैं, उनकी त्वचा निकाल ली जाती है और जानवर के धड़ से बची हुई आंत निकाल ली जाती है ।

कई मामलों में, जानवर पूर्णतः चेतना में हो सकते हैं जब वे मारे जाते हैं । कभी – कभी वे मारने के चरण में नहीं मरते हैं और अगले चरण में पूरी तरह चेतना में रहते हैं, जब उनकी त्वचा उतारी जाती है और टुकड़ों में काटा जाता है । यह होता है क्योंकि रक्तस्राव से मरने में कई मिनट लगते हैं । हालांकि, जानवर उनकी गर्दन काटने के तुरंत बाद टुकड़ों में काट दिए जाते हैं, जिससे वे अक्सर जीवित विखंडित कर दिए जाते हैं । एक साक्षात्कार में एक कत्लखाना कार्यकर्त्ता ने बताया ।

“गर्दन पर चीरा लगाने से लेकर पिछले पैरों तक की त्वचा उधेड़ने में 10 सेकंड लग सकते हैं । वे वहां बड़ी मुश्किल से सांस ले रहे थे, कराह रहे थे, वे रेल को गिरा दे रहे थे क्योंकि वे जीवित थे” ।26

एक अन्य कत्लखाना कार्यकर्त्ता, रेमून मोरेनो जिनका काम जानवरों के हिस्से करना (उनके शरीर को टुकड़ों में बांटना) था, ने आधिकारिक रूप से यह प्रतिदिन कई बार करते रहे जबकि वे पूरी तरह होश (सचेतन) में थे । उन्हें मोरेनो तक आने से पहले मर जाना था । किन्तु अक्सर कई बार वे नहीं थे ।

“वे झपकते है । वे आवाजें निकालते है,” उन्होंने धीरे से कहा । “सिर हिलता है, आंखें बड़ी और आसपास देखती हैं” ।

तब भी मोरेनो काटते हैं । बुरे दिनों में, उन्होंने कहा, उनके स्टेशन तक दर्जनों जानवर स्पष्ट रूप से जीवित और होश (सचेत) में पहुंचे थे । कुछ पूंछ कटने, कमर फाड़ने, ख़ाल खींचने तक जीवित रह सकते हैं । “वे मरते हैं,” “टुकड़े टुकड़ों में”, मोरेनो ने कहा” ।27

“यदि आप गाय के ऊपर एक चाकू रखें, तो यह आवाज़ निकालने वाली है: यह मूं! करती है” ।28

एक यू. एस. कृषि विज्ञान तकनीशियन टिम वॉकर ने बताया ।

“मैंने हर किसी से शिकायत की – मैंने कहा, ‘ देखिए इसे, वे यहां जीवित गायों की त्वचा उतार रहे हैं ‘, वॉकर ने कहा । हमेशा एक ही जवाब था: ‘ हम जानते हैं यह सत्य है । किन्तु इस बारे में हम कुछ नहीं कर सकते ‘ “ ।29

यह अन्य कत्लखाना कार्यकर्त्ता द्वारा पुष्ट किया गया है:

“मैंने हज़ारों हज़ार गायों को जीवित कत्ल होने की प्रक्रिया से गुजरते देखा है,” आई बी पी के अनुभवी स्रोत, एक कार्यकर्त्ता जो जीवित गाय पर कार्यरत रहने के दौरान घायल हो गया था, एक शपथपत्र में कहा । “गाय रेखा के नीचे 7 मिनट ले सकती है और तब भी जीवित रह सकती है । मैं किनारे खींचने वाली जगह पर रह चुका हूं जहां वे अब भी जीवित थे । वहां पूरी पीठ नीचे गर्दन तक उधेड़ दी जाती है । “30

सुअर

कार्बन डाइऑक्साइड केवल सूअरों को बेहोश करने के लिए नहीं, बल्कि उनके शरीर को ऑक्सीजन से वंचित कर सीधे मारने के लिए भी प्रयोग की जा सकती है, जिससे वे घुट कर मरते हैं । हालांकि, सामान्यतया वे कार्बन डाइऑक्साइड से केवल बेहोश किए जाते हैं और फिर उनका गला काटा जाता है । एक बार सूअरों को बेहोश करने की प्रक्रिया से गुजरने पर, चाहे वे बेहोश हों या ना हों, वे ऊपर की ओर खींचे और उनके पिछले पैरों से वाहक पट्टे पर लटका दिए जाते हैं जो उन्हें उन कार्यकर्ताओं की जगह तक के जाता है जो उन्हें मारते हैं । कार्यकर्त्ता जानवरों का गला चीर देते हैं । अधिकतर सूअर रक्तस्राव से मरते हैं । लेकिन कुछ नहीं मरते । सामान्य रूप में, बेहोश करने की विधियां अक्सर एक प्रजाति के लिए बनाई (अभिकल्पित) की जाती है, किन्तु वे उस प्रजाति के अन्तर्गत जानवरों को वज़न जैसे कारकों के कारण विभिन्न तरीकों से प्रभावित कर सकती हैं । अन्य मामलों में, जानवर सीधे बेहोश नहीं होते क्योंकि प्रक्रिया बहुत जल्दी की जाती है, या बनाए गए तंत्र के तरीके या मानवीय खामियों (कमियों, गलतियों) के कारण । इन मामलों में, जानवर पूर्णतः होश में होते हैं कत्लखाना प्रक्रिया में अगले चरण में पहुंचते हैं, जो कि खौलते पानी के टैंक हैं, बहुत गर्म पानी से नहलाया जाना जिसमें जानवर वास्तव में जलते हैं जिससे उनके पंख और बाल आसानी से निकाले (हटाए) जा सकें ।31 पुनः, यहां कार्यकर्ताओं द्वारा इसकी सूचनाएं हैं ।

“मैंने सूअरों को खौलते पानी वाले तब में तैरने का प्रयास करते देखा है” ।32

“ये सूअर खौलते पानी वाले टैंकों में उठ जाते हैं, पानी पर वार करते और चिल्लाना और मारना शुरू करते हैं । कभी – कभी वे बहुत पीटते हैं जिससे वे पानी टैंक के बाहर फेंक देते हैं… जल्द या देर से वे डूब जाते हैं । यहां एक घूमता पंका है जो उन्हें नीचे धकेलता है, उनके लिए बाहर आने का कोई अवसर नहीं है । मैं आश्वस्त नहीं हूं कि वे डूबने से पहले जलने से मरते हैं, किन्तु उन्हें हाथ – पांव पीटना बंद करने में कुछ मिनट लगते हैं ।33

पक्षी

चूज़े (मुर्गी, मुर्गा) कत्लखाने के पहले चरण में, चूज़े (मुर्गी, मुर्गा) एक वाहक पट्टे पर उल्टे लटकाए जाते हैं, और फिर उनके सिर बेहोश करने वाले विद्युतकृत टैंकों में से ले जाए जाते हैं, जो विद्युत धारा से नहाएं होते हैं जानवरों को बेहोश करने के लिए । आगे, एक स्वचालित ब्लेड उनका गला चीरती है । यहां से, वाहक पट्टा उन्हें खौलते पानी से भरे जलाने वाले टैंकों में खींचता है जहां उनके पंख निकाले जाते हैं ।

वाहक पट्टे से लटके रहना बहुत असहज और विक्षुब्ध करने वाला है, पक्षी संघर्ष करते हैं, अपने पंख फड़फड़ाते और सिर हिलाते हैं । इसी कारण से, जब वे विद्युत कृत टैंकों से गुजरते हैं, तो उनके सिर उठ सकते हैं और वे शायद बेहोश ना हों । हो सकता है कि वे स्वचालित ब्लेड तक पहुंचने के समय हिलते रहें । जिसके परणामस्वरूप, हो सकता है ब्लेड उनकी गर्दन ना काटे । ब्लेड जानवर को छुवे भी ना, या इसकी बजाय उनके शरीर का दूसरा अंग काट दे, जैसे कि पंख, चेहरा, या चोंच ।

फिर कत्लखाना कार्यकर्त्ता जानवरों के सिर काट सकते हैं जो स्वतः (अपने आप) नहीं मरे है । हालांकि, वाहक पट्टा तेज़ी से चलता है और रुक नहीं सकता, इसलिए अक्सर उनसे जानवर छूट जाते हैं । इसका अर्थ है कि जानवर खौलते पानी वाले टैंकों तक पूर्णतः होश में पहुंचेंगे, जहां वे जीवित उबलेंगे ।

 

यातना को बदतर बनाने वाले अतिरिक्त कारक

यहां अन्य कारक हैं जो कत्लखाने की मौतों को और भी दर्दनाक और तनावपूर्ण कर सकते हैं, जैसे कि असंगत (अनुपयुक्त) कार्यरत उपकरण । एक कत्लखाना कार्यकर्त्ता ने कहा:

“पंक्ति बहुत तेज़ है यहां चाकू धार करने के लिए बिल्कुल समय नहीं है । चाकू घिस जाती है और आपको ज़ोर से काटना है” ।34

अन्य कारकों में जानवरों के लिए कार्यकर्ताओं में जानवरों के लिए परवाह में कमी है । जानवरों को मार पाने के क्रम में, कत्लखाना कार्यकर्त्ताओं के लिए जानवरों के प्रति लगभग पूरी तरह से असंवेदनशील होना जरूरी है । जैसा एक कार्यकर्त्ता ने इसे प्रस्तुत किया:

“मारने वाले फर्श (धरातल) पर पड़े सूअर ऊपर उठे और मुझे पिल्ले की तरह सूंघा । दो मिनट बाद मुझे उन्हें मारना था – उन्हें मरने के लिए पाइप से मारना । मैं परवाह नहीं कर सकता” ।35

इसके अलावा , जानवर कुछ कार्यकर्त्ताओं की क्रूरता के शिकार हो सकते हैं । यहां जानबूझ कर जानवरों पर भयानक दर्द थोपे जाने के कई मामले दर्ज हैं । यह तब हो सकता है यदि कार्यकर्त्ता तनावग्रस्त हों, या दिन खराब हो, या यदि कुछ जानवर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हों और कार्यकर्त्ता प्रतिकार करना चाहता हो । इनमें से किसी भी परिस्थिति में, जैसे कि खेतों पर, जानवर पूरी तरह निराश्रय (बचाव रहित) होते हैं और कार्यकर्त्ता अक्सर इस परिस्थिति में होते हैं जिसमें वे जानवरों के साथ जो चाहें वो कर सकते हैं । अन्य कत्लखाना कार्यकर्त्ता द्वारा दिया गया निम्नलिखित बयान इसे काफ़ी स्पष्टता से दर्शाता है :

“आप पहले ही एक सूअर को मारने जा रहे हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है । इसे संघर्ष (पीड़ा सहना) करना है….. आप सीधे उस मारते नहीं हैं, आप निष्ठुर होते हैं, ज़ोर डालते हैं, सांस की नली तोड़ देते हैं, उसे उसी के रक्त में डुबाते हैं । इसकी माक फाड़ते हैं । एक जीवित सूअर घेरे के चारों ओर दौड़ेगा । यह बस मेरी ओर देखता है और मैं उसे पीटता हूं, और मैं तुरंत अपनी चाकू लेता हूं और – एर्रक – इसकी आंख काट देता हूं जब वह वहां बैठा था । और यह सूअर बस चीखेगा । एक बार मैंने चाकू लिया – यह काफी धारदार है – और मैंने सूअर की नाक काट के अलग कर दी, बिल्कुल एक बोलोग्ना के टुकड़े की तरह । कुछ सैंकड़ों में सूअर पागल होने लगा । फिर वह बेवकूफ़ की तरह बिल्कुल बैठ गया । तब मैंने मुट्ठी भर खारा नमक लिया और उसकी नाक पर रगड़ दिया । तब वह सूअर अपनी नाक हर जगह रगड़ते हुए, वास्तव में पागल हो उठा । मेरे हाथों में अब भी काफी नमक था – मैंने रबर का दस्ताना पहना था – और मैंने सूअर के गुदा में नमक भर दिया । बेबस सूअर नहीं जानता था कि मल त्यागे या अंधा हो जाए… किन्तु इस तरह की चीज़ें करने वाला में अकेला व्यक्ति नहीं था… एक व्यक्ति जिसके साथ मैं काम करता हूं वास्तव में सूअरों को जलाने (खौलाने) वाले टैंक में पकड़ता है” ।36

इसे नियंत्रित करने का यहां कोई भरोसेमंद तरीक़ा नहीं है, यहां तक कि औचक निरीक्षण से भी । जानवरों को इस तरह से हानि पहुंचने वाला ऐसा करना रोक सकता है जब वह निगरानी में हो । जब तक लोग पशु उत्पादों की मांग करेंगे, यहां औद्योगिक पशु खेती होगी और यह होता रहेगा ।

यहां तक कि जब यहां कोई असामान्य उत्पीड़न नहीं है, सामान्य (मान्य) कत्लखाना क्रियाएं जो हमने ऊपर देखी हैं वे जानवरों के बुरी तरह पीड़ित होने की कारक हो सकती हैं । और इन सभी मामलों में, जबकि वे काफी दर्द या भय से पीड़ित नहीं हैं, तब भी अमानुष जानवर अपने जीवन से वंचित हो कर हानिग्रस्त हैं ।


आगे की पढाई

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नोट्स

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2 Robb, D. H. F. & Kestin, S. C. (2002) “Methods used to kill fish: Field observations and literature reviewed”, Animal Welfare, 11, pp. 269-282. Robb, D. H. F.; Wotton, S. B.; McKinstry, J. L.; Sørensen, N.K. & Kestin, S. C. (2000) “Commercial slaughter methods used on Atlantic salmon: Determination of the onset of brain failure by electroencephalography”, Veterinary Record, 147, pp. 298-303.

3 Benson, T. (2004) Advancing aquaculture: Fish welfare at slaughter, London: Winston Churchill Memorial Trust, p. 23.

4 Lambooij, E.; Vis, J. W. van de; Kloosterboer, R. J. & Pieterse, C. (2002) “Welfare aspects of live chilling and freezing of farmed eel (Anguilla anguilla L.): Neurological and behavioural assessment”, Aquaculture, 210, pp. 159-169; Skjervold, P. O., Fjaera, S. O., Ostby, P. B. & Einen, O. (2001) “Live-chilling and crowding stress before slaughter of Atlantic salmon (Salmo salar)”, Aquaculture, 192, pp. 265-280. Yue, S. [ca. 2009] An HSUS report: The welfare of farmed fish at slaughter, Washington, D. C.: Humane Society of the United States, p. 4 [अभिगमन तिथि 27 नवम्बर 2014].

5 हो सकता है इस तरह से बेहोश किए गए सैलमन कुछ मिनटों के लिए हिंसक रूप से लड़ें, देखिए Robb, D. H. F.; Wotton, S. B.; McKinstry, J. L.; Sørensen, N. K. & Kestin, S. C. (2000) “Commercial slaughter methods used on Atlantic salmon: Determination of the onset of brain failure by electroencephalography”, op. cit.

6 Benson, T. (2004) Advancing aquaculture: Fish welfare at slaughter, op. cit., p. 6.

7 Ibid., p. 9.

8 इस पर सबसे विस्तृत रूप से टेंपल ग्रंडिन ने कार्य किया है, जिन्होंने इसके सुधार कार्य करने के दौरान जानवरों के शोषण को समर्थन करने के लिए पशु शोषण उद्योग के साथ मिलकर काम किया है जिससे जानवर कम पीड़ित हों। वह भोजन हेतु जानवरों को मारे जाने के पक्ष (समर्थन) में हैं, इसलिए उनका कार्य जानवरों की जान ले कर उन्हें हानि पहुंचाने पर ध्यान नहीं देता (व्याख्या नहीं करता) । उदाहरण के लिए देखें: Grandin, T. (1987) “Animal handling”, Veterinary Clinics North America: Food Animal Practice, 3, pp. 323-324; (1988b) “Double rail restrainer conveyor for livestock handling”, Journal of Agricultural Engineering Research, 41, pp. 327-338; (1998c) “Solving livestock handling problems in slaughter plans”, Gregory, N. G. & Grandin, T. Animal welfare and meat science, Wallingford: CABI Publishing, pp. 42-63; (1990) “Design of loading and holding pens”, Applied Animal Behavior Science, 28, pp. 187-201; (1991) Recommended animal handling guidelines for meat packer, Washington, D. C.: American Meat Institute; (1992) “Observation of cattle restraint devices for stunning and slaughtering”, Animal Welfare, 1, pp. 85-90; (1994) “Euthanasia and slaughter of livestock”, Journal of American Veterinary Medical Association, 204, pp. 1354-1360; (1996) “Factors which impede animal movement in slaughter plans”, Journal of American Veterinary Medical Association, 209, pp. 757-759; (1997a) “Assessment of stress during handling and transport”, Journal of Animal Science, 75, pp. 249-257; (1997b) “Good management practices for animal handling and stunning”, Washington, D. C.: American Meat Institute; (1997c) Survey of stunning and handling in federally inspected beef, veal, pork and sheep slaughter plants, Fort Collins: Grandin Livestock Handling Systems.

9 Kirton, A. H.; Moss, R. A. & Taylor, A. G. (1971) “Weight losses from milk and weaned lamb in mid Canterbury resulting from different lengths of starvation before slaughter”, New Zealand Journal of Agricultural Research, 14, pp. 149-160 [अभिगमन तिथि 15 जनवरी 2014]. Terlouw, E. M. C.; Arnould, C.; Auperin, B.; Berri, C.; Le Bihan-Duval, E.; Deiss, V.; Lefèvre, F.; Lensink, B. J. & Mounier, L. (2008) “Pre-slaughter conditions, animal stress and welfare: Current status and possible future research”, Animal, 2, pp 1501-1517.

10 Eisnitz, G. (1997) Slaughterhouse: The shocking story of greed, neglect, and inhumane treatment inside the U.S. meat industry, Amherst: Prometheus, p. 82.

11 Ibid., p. 145.

12 Grandin, T. (1991) Recommended animal handling guidelines for meat packer, op. cit.

13 Butler, V. (2003) “A night in Tyson’s hell”, The Cyberactivist, September 23 [अभिगमन तिथि 12 मार्च 2013].

14 Bilgili, S. F. (1992) “Electrical stunning of broilers – Basic concepts and carcass quality implications: A review”, The Journal of Applied Poultry Research, 1, pp. 135-146.

15 Hillebrand, S. J. W.; Lambooij, E. & Veerkamp, C. H. (1996) “The effect of alternative electrical and mechanic stunning methods on haemorrhaging and meat quality of broiler breast and thigh muscles”, Poultry Science, 75, pp. 664-671.

16 Göksoy, O.; McKinstry, L. J.; Wilkins, L. J.; Parkmanm I.; Phillips, A.; Richardson, R. I. & Anil, M. H. (1999) “Broiler stunning and meat quality”, Poultry Science, 78, pp. 1796-1800. Raj, A. B.; Gregory, N. G.; Wilkins, L. J. (1992) “Survival rate and carcass downgrading after the stunning with carbon dioxide-argon mixtures”, Veterinary Record, 130, pp. 325-328.

17 Adams, D. B. & Sheridan, A. D. (2008) Specifying the risks to animal welfare associated with livestock slaughter without induced insensibility, Canberra: Australian Government Department of Agriculture, pp. 1-55.

18 Gregory, N. G. (1993) “Slaughter technology electrical stunning in large cattle”, Meat Focus, pp. 32-36; (1994) “Preslaughter handling, stunning and slaughter”, Meat Science, 36, pp. 45-56.

19 Atkinson, S.; Velarde, A. & Algers, B. (2013) “An assessment of carbon dioxide stunning in pigs”, Animal Welfare, 22, pp. 473-481.

20 Gregory, N. G.; Moss, B. & Leeson, R. (1987) “An assessment of carbon dioxide stunning in pigs”, Veterinary Record, 121, pp. 517-518.

21 Dodman, N. H. (1977) “Observations on the use of the Wernberg dip-lift carbon dioxide apparatus for preslaughter anesthesia of pigs”, British Veterinary Journal, 133, pp. 71-80. Grandin, T. (1988d) “Possible genetic effect in pig’s reaction to CO2 stunning”, Congress proceedings: 34th International Congress of Meat Science and Technologies, 29 August – 2 September, Brisbane, Australia, pp. 96-97.

22 Bauer, N. A.; Buckley, S. A. & Ferris, R. A. (1997) “Brain emboli in the pulmonary arteries, hepatic veins and renal veins of slaughtered cattle as a sequelae to the stunning process”, Epidemiology and Economics Symposium ’97, August 19-21, Fort Collins, Colorado.

23 Ramantanis, S. B.; Hadžiosmanović, M. & Stubičan, D. (2005) “Preventive measure against possible BSE-hazard: Irreversible electrical cattle stunning – a review”, Veterinarski Arhiv, 75, pp. 83-100 [अभिगमन तिथि 9 सितंबर 2012].

24 Lambooij, E.; Spanjaard, W.; Eikelenboom, G. (1981) “Concussion stunning of veal calves”, Fleischwirtchaft, 61, pp. 98-100.

25 Wotton, S. B.; Gregory, N. G.; Whittington, P. E. & Parkman, I. D. (2000) “Electrical stunning of cattle”, Veterinary Record, 147, pp. 681-684.

26 Eisnitz, G. (1997) Slaughterhouse: The shocking story of greed, neglect, and inhumane treatment inside the U.S. meat industry, op. cit., p. 216.

27 Warrick, J. (2001) “They die piece by piece”, Washington Post, 10 April, p. A01.

28 Ibid.

29 Ibid.

30 Ibid.

31 Ibid.

32 Eisnitz, G. (1997) Slaughterhouse: The shocking story of greed, neglect, and inhumane treatment inside the U.S. meat industry, op. cit., p. 33.

33 Ibid., p. 84.

34 Human Rights Watch (2005) “Blood, sweat and fear: Workers’ rights in U.S. meat and poultry plants”, Human Rights Watch, January [अभिगमन तिथि 8 मार्च 2013]. यहां केवल कत्लखाना कार्यकर्त्ताओं की फ़िक्र (चिंता) है, जैसे मानव अधिकार संस्थाओं के लिए यह लाक्षणिक है कि वे कम से कम जानवरों के लिए चिंतित नहीं हैं । तथापि (तो भी) हम आसानी से समझ सकते हैं कि यह कैसे जानवरों को हानि पहुंचाता है, जो ख़राब उपकरण जिनसे वे मारे जाते हैं, के कारण महत्वपूर्ण रूप से पीड़ित होंगे ।

35 Eisnitz, G. (1997) Slaughterhouse: The shocking story of greed, neglect, and inhumane treatment inside the U.S. meat industry, op. cit., p. 87.

36 Ibid., pp. 92-93.