जनसंख्या में गतिशीलता और पशुओं की पीड़ा

जनसंख्या में गतिशीलता और पशुओं की पीड़ा

हमेशा ही अधिकतर जीवित पशु अपने अस्तित्व में आने के थोड़ी देर बाद अक्सर दर्दनाक व भयावह तरीक़ों से मर जाते हैं, यह इसलिए होता है क्योंकि अधिकतर पशुओं की सर्वाधिक बच्चा करने की नीति के कारण उनकी बाल्यावस्था में मौत हो जाती है ।

जनसंख्या गतिशीलता वह तरीक़ा या कैसे और क्यों का अध्ययन है जिसमें उनकी वृद्घि और संरचना परिवर्तन को प्रभावित करने वाले पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, जीवित प्राणियों की जनसंख्या समय के साथ बदलती है । इन कारकों के बीच के आपसी खेल की समझ हमें अलग-अलग जंगली पशु की आबादी में उनकी कुल पीड़ा और स्वास्थ्य की एक बेहतर तस्वीर पेश करती है और उनकी मदद करने के लिये आवश्यक कार्य रचना की प्रभावी नीतियाँ बनाने की अनुमति देती हैं ।

जनसंख्या गतिशीलता के अध्ययन में मृत्यु और पुनरुत्पादन दो मुख्य कारक हैं । ये किसी भी जंगली पशु आबादी के बढ़ने, घटने या भरणपोषण को निर्धारित करते हैं और उस आबादी के प्रत्येक सदस्य को प्राप्त हित को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित सकते है । जैव इतिहास के सिद्धांत साथ जनसंख्या गतिशीलता यह खोजने हमारी मदद कर सकती है कि जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में जीवित बचने वाले पशुओं पर मर जाने वाले पशुओं का औसत कितना है । इस सूचना को मृत्यु के दर्दनाक और भयावह प्रकारों की जानकारी के साथ मिलाना हमें विभिन्न जंगली पशुओं के जीवन की सामान्य विशेषता की अंतरदृष्टि दे सकती है ।

पुनरुत्पादक योजनाएँ और पशु मृत्यु

आबादी में बदलाव किस तरह विभिन्न कारकों पर निर्भर है इसे ध्यान में रखते हुए हम शुरुआत कर सकते हैं । पहला कारण ये है कि जब कोई आबादी में जुड़ने के लिए क़रीब के क्षेत्र से विस्थापित होता है जिसके चलते इनकी कुल संख्या और ऊर्जा ज़रूरतों में बढ़ोत्तरी होती है जबकि ये विस्थापित जहाँ से आए हैं वहाँ इनकी आबादी कम हो गई ।

हालाँकि, जनसंख्या विस्तार ऊपर बताए गए कारकों “जन्म और मृत्यु” से सब से अधिक प्रभावित है । किसी भी जनसंख्या को समय के साथ स्थिर रहने के लिए जन्म संख्या का मृत्यु संख्या से समानुपात होना ज़रूरी है क्योंकि यहाँ भोजन और मकान जैसे संसाधन सीमित हैं, औसत रूप से प्रति माता-पिता केवल एक संतान युवावस्था तक जीवित रह सकती है । इसका अर्थ है कि जिन जानवरों की कम संतानें हैं उनमें अपेक्षित रूप से कम शिशु मृत्यु दर है और जिन जानवरों की अधिक संतानें हैं उनमें आम तौर पर शिशु मृत्यु दर ऊँची है । एक स्थिर जनसंख्या में किसी एक समय पर जनसंख्या के ज़्यादातर भाग जो अभी पैदा हुए जानवर थे और अब मरने वाले हैं, इसका यह अर्थ नहीं है कि जनसंख्या में कमी हो रही है ।

समय के साथ उनके वातावरण में सीमित कारकों में परिवर्तन होने के कारण जनसंख्या घटती और बढ़ती है, जैसे कि भोजन की उपलब्धता या शिकारियों की मौजूदगी । इन कुछेक सीमाओं में बदलाव होने पर एक जनसंख्या में वृद्धि हो सकती है, उदाहरण के लिए, यदि शिकारियों की आबादी विलुप्त हो जाए, तो आमतौर पर इनके द्वारा शिकार करने वाले जीवों के ज़िंदा बने रहने अवसर बढ़ जाएँगे अर्थात् प्रति माता-पिता एक संतान से अधिक बच्चे जीवित रह सकते हैं । यह उनकी आबादी को तेज़ी बढ़ाएगा जब तक कि उनका सामना आबादी पर रोक लगाने वाली दूसरी सीमाओं से ना हो जाए, जैसे कि भोजन की उपलब्धतता, यहाँ तक कि यदि जनसंख्या वृद्घि के दौरान थोड़े से जानवर मरते हैं फिर भविष्य की पीढ़ियाँ अधिक मौतों का सामना करेंगी जब उनकी बढ़ोत्तरी पर रोक लगेगी क्योंकि अब वहाँ दोनों बातें होंगी, एक बड़ी संख्या में वयस्क और एक उच्च शिशु मृत्यु दर । संसाधन सीमित होने के कारण प्रति माता-पिता केवल एक संतान जीवित बच सकती है ।

कुछ जानवर बहुत कम संतानें पैदा कर उनकी देखभाल करते हुए वंश बढ़ाते हैं । वे एक बार में केवल एक जानवर को जन्म देते हैं या एक ही अण्डा देते हैं । वे अपने वंश में मृत्यु में अंतर रखने की विशेषता को बेहतर करने में अपनी ऊर्जा लगाकर उच्च शिशु मृत्यु दर से बचते हैं । इन विशेषताओं में, शिशुओं की पैतृक सुरक्षा और सामान्य कठिनाइयों का सामना करने के लिए उन्हें तैयार करना, एक से अधिक बार बच्चे पैदा करने के लायक एक लम्बा जीवन और उन्हें मानसिक सशक्त बनाना जो उन्हें चुनौतियों पर क़ाबू पाने के अवसरों को बढ़ाने जैसी बातें सम्मिलित हैं ।

दुर्भाग्य से, यहाँ जानवरों की बहुत कम प्रजातियाँ इस वंश-वृद्घि प्रक्रिया का पालन करती हैं । कुछ स्तनपायी जैसे नरमानव, समुद्रीस्तनपायी (व्हेल, डॉल्फ़िन, सील, और सूँस), भालू, हाथी और अन्य शाकाहारी, और कुछ पक्षी जैसे कि समुद्री पक्षियों के पास ऐसी वंश-वृद्घि नीति होती है । हालाँकि जानवरों की एक बहुत बड़ी संख्या बार-बार और बड़ी तादाद में बच्चे पैदा करने की एक अलग नीति का पालन करती है ।

इस नीति का एक बड़ा नुक़सान है । जानवरों का इस तरह से बच्चा पैदा करने के दौरान जीने के लिए जिस उच्च ऊर्जा की ज़रूरत होती है या उत्तरजीविता के जो लक्षण होने चाहिए, वह प्रजनन दर काफ़ी ज़्यादा होने के कारण शायद न हों । उदाहरण के लिए, एक प्रवृत्ति जो बच्चे जनने के अवसरों को कम करती है उसे चुना नहीं जा सकता यहाँ तक कि यह कुछ जीवित बचे रहने के फ़ायदे उपलब्ध कराये तब भी । ऐसा इसलिए क्योंकि पुनरुत्पादक नीति पुनरुत्पादन को अधिकतम करती है ना कि किसी की उत्तरजीविता के अवसर को । क्योंकि वे बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करने का सामंजस्य बनाते हुए उत्पादन करते हैं । इन जानवरों में से ज़्यादातर का जीवन बहुत छोटा होगा साथ ही ज़िंदा खाये जाने से बच निकलने के कम मौक़ों,भूख से मरने, जंगली जानवरों द्वारा होने वाली अन्य हानियों से मुक़ाबला करने के साथ ही इन जानवरों में से ज़्यादातर का जीवन बहुत छोटा होगा । चूँकि वे संभावित रूप से संवेदनशील हैं, अपने छोटे से जीवन के दौरान ज़्यादातर पीड़ा या दुःख में होंगे ।

ऐसी पुनर्जनक नीति दर्शाने वालों में उभयचर और सरीसृप (रेंगने वाले जानवर) वर्ग के जानवर आते हैं जो कि दस-बीस या सैकड़ों की संख्या में आबादी बढ़ाते हैं और सामान्य केन मेंढक के लिये यह बढ़कर 25000 हो जाता है । 1 मछली की कुछ प्रजातियाँ जैसे अटलांटिक सैल्मन क़रीब 20000 अण्डे एक बार में देती है, सैल्मन की अन्य सामान्य प्रजातियाँ, कौड और दूना लाखों की संख्या अण्डे देती हैं । 2 अकशेरुकी (रीढ़विहीन) जानवरों में भी बड़ी संख्या में अण्डे देना सामान्य है । उदाहरण के लिए क्रस्टेसीयंस, क्रेफ़िश एक बार में सैकड़ों बच्चे देते हैं और घोंघे, 3 ओक्टोपस सैकड़ों हज़ार अण्डे दे सकते हैं । ज़मीन पर रहने वाले अकशेरुकी जानवरों जिनमें आर्थोपोड्स भी आते हैं, एक बार में सैकड़ों हज़ारों और कुछ मामलों में लाखों अण्डे दे सकते हैं । 4

पशुओं की पीड़ा के कारण

पुनरुत्पादक नीतियों की प्रबलता के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में नये बच्चे पैदा होना जानवरों की पीड़ा का महत्वपूर्ण कारण है । 5 यहाँ इस बात को मानने के मज़बूत कारण हैं कि जंगल में रहने वाले जानवर अपने लघु जीवनकाल में सकारात्मक स्वास्थ्य अनुभवों की बजायकहीं अधिक परेशानी या पीड़ा को सहन करते हैं । हालाँकि कुछ जानवरोंको जल्दी मर जाने के कारण कम दर्द सहन करना पड़ सकता है जबकि अन्य, लम्बी मृत्यु के कारण बुरी तरह पीड़ा सहते हैं और काफ़ी कम उम्र मर जाते हैं । इसका अर्थ है कि हो सकता है उन्हें अपने जीवन में कोई अर्थपूर्ण सकारात्मक अनुभव जीने का अवसर ना मिला हो । वास्तव में उन्हें मरने के भयानक अनुभव के अलावा केवल थोड़े अनुभव हो सकते हैं ।

क्योंकि उनकी मौतें प्रकृतिक और उनके जीवन इतिहास का एक हिस्सा हैं, इसलिए यह एक नैतिक मुद्दा नहीं प्रतीत होता । लेकिन यदि हमें लगता है कि हमें मनुष्यों और घरेलू जानवरों की मदद करनी चाहिए जब भी वे परेशानी में हों, तो फिर इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि हम जंगली जानवरों से भिन्न या अलग व्यवहार करें, सिर्फ़ इसलिए कि वे जंगल में रहते हैं । ऐसे कई प्रभाव हैं जो दिखाते हैं कि किस प्रकार वे पीड़ा अनुभव करते हैं वह मनुष्यों द्वारा अनुभव की गई पीड़ा से अलग नहीं है । और यही समानता नैतिक रूप से प्रासंगिक है

इसके अलावा, इस तथ्य का कि “कई जानवरों का जीवन बहुत छोटा या अविकसित होता है”, यह मतलब नहीं है कि वे संवेदनशील नहीं हैं । उदाहरण के लिए, यह देखा जा चुका है की वयस्क ज़ेब्राफ़िश की हानिकारक प्रभावों के प्रति प्रतिक्रिया एक संवेदनशील प्राणी की तरह ही है और अवयस्क( ज़ेब्राफ़िश की प्रारंभिक अवस्था) ज़ेब्राफ़िश की प्रतिक्रिया भी वयस्क के समान ही होती है । 6 हम जानते हैं कि अधिकतर पशु अपने अस्तित्व में आने के थोड़ी देर बाद मर जाते हैं क्योंकि ज़्यादातर जानवरों के पास अपने अधिकतर नए बच्चों के जीने के लिए संसाधन या मौक़े नहीं हैं । इसके फलस्वरूप हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्रकृति में सकारात्मक स्थितियाँ जैसे सुख और इच्छा का पूरा होने के ऊपर दुःख और विपत्ति (पीड़ा) जैसी नकारात्मक स्थितियाँ प्रबल हैं ।

इसका यह मतलब नहीं है कि युवावस्था तक जीने वाले कुछ जानवर स्वतः ही सुखी हैं और उन्हें किसी सहायता की ज़रूरत नहीं है । इन जानवरों का जीवन बीमारी, कुपोषण और भूख, मौसम की स्थिति, पराश्रयिता और शिकार, चोटों और मानसिक तनाव जैसे कारकों के कारण लम्बी पीड़ा से भरा होगा । इस तरह यदि एक जानवर अपने बाल्यावस्था पार भी कर ले तो उनके जीवन में आनंद की बजाय पीड़ा ज़्यादा होगी । लेकिन यहाँ तक कि युवा जानवर यदि अच्छा जीवन जीते हैं तो भी जीवित ना रह पाने वाले बच्चों और जिनका जीवन भयानक रहा है इसकी अनुपातहीन संख्या के कारण पूरी जनसंख्या का पीड़ा सहन करने का अनुभव सकारात्मक या सुख पाने के अनुभव से ज़्यादा वज़नदार होगा ।

सभी जानवरों की आबादी सार्थक पीड़ा और मृत्यु का सामना करती है

जानवरों की प्रजाति का वो भाग जिसका सम्बन्ध बाल्यावस्था में उत्तरजीविका दर से है, परिपक्वता से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है । यद्यपि वे अपने प्रत्येक प्रजननकाल में केवल एक संतान को ही जन्म देते हों, उनकी प्रजनन आवृत्ति का मतलब है कि उनके जीवनकाल में कई संतानें हो सकती हैं । उनके प्रजनन आदतों के बावजूद, एक आबादी की स्थिरता के लिए औसत रूप से प्रति माता-पिता एक संतान अपने वंश को बढ़ाने के लिए जीवित रहेगी ।

यह अक्सर कहा जाता है कि केवल बूढ़े और बीमार पशु ही जंगल में मरते हैं जबकि युवा और स्वस्थ पशुओं का जीवन ख़ुशहाल होता है । यह सकारात्मक माना जाता है क्योंकि बूढ़े और बीमार जानवरों की मृत्यु उन्हें दर्द और संकट से छुटकारा देती है जो वे अन्य बीमारी या आयु सम्बंधी परेशानी अनुभव करते, तो भी तथ्य (सबूत) बताते हैं कि मामला यह नहीं है । नीचे सूचीबद्ध कुछ उदाहरण हैं जो यह दिखाते हैं कि युवा पशु जो बाल्यावस्था में जीवित रहते हैं उनकी उम्र बूढ़े पशुओं से अधिक होने की सम्भावना रहती है ।

मिनिसोटा के केंद्रीय सूपीरीअर नैशनल फ़ॉरेस्ट में 1983 – 1984 की सर्दियों के दौरान 1973 से 209 सफ़ेद पूँछ वाले हिरण देखे गये; इस दौरान एक तिहाई से अधिक हिरणों की मौत हो गई, और नर-मादा दोनों के लिये इस अध्ययन में जो मृग सबसे अधिक मरने वाले थे, उनमें एक वर्ष से कम उम्र के हिरण थे । 7

एक अध्ययन में 1959 और 1989 के बीच 439 इल्से रॉयल मूज़ (एक प्रकार का हिरण) की मौतों का विश्लेषण किया गया । जिसमें 45 प्रतिशत मौतें बछड़ों की हुईं । 8

स्काटलैंड में सोय भेड़ के एक समूह का जनसंख्या घनत्व 2.2 प्रति हेक्टेयर होने पर सर्दियों के दौरान होने वाली मौतों की भारी संख्या का दस्तावेज़ीय (संक्यिक) अनुसंधान किया गया है । 50 प्रतिशत वयस्कों की तुलना में इन परिस्थितियों में 90 प्रतिशत से अधिक मेमने और 70 प्रतिशत एक वर्षीय शिशु मर जाते हैं । 9

यही पक्षियों के साथ भी देखा गया है । हमारे अध्ययन में पाया गया की पीली आँख वाले जुंकोस की मृत्यु दर प्रथम वर्ष में सर्वाधिक है । 10

बेशक, यह अध्ययन केवल जंगली जानवरों की आबादी में शिशु बनाम वयस्क मृत्यु दर के बारे में मुट्ठी भर मामलों के लिये सूचनाएँ प्रदान करता है । जंगली जानवरों की पीड़ा की समस्या का हमारा विश्लेषण सर्वाधिक उत्पादक नीति के कारण समयपूर्व मौतों और पीड़ा या भय से सम्भावित मौतों की अवश्यंभावी संख्या पर आधारित है, इस समस्या के अध्ययन हेतु उपयोगी उदाहरण की तरह ।


आगे की पढ़ाई

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नोट्स

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4 Brueland, H. (1995) “Highest lifetime fecundity”, Walker, T. J. (ed.) University of Florida book of insect records, Gainesville: University of Florida, pp. 41-43 [अभिगमन तिथि 16 नवंबर 2019].

5 कुलमिलाकर, उत्तर जीवित पर महत्त्व के विरूद्ध अधिकतम उत्त्पादन इन दो योजनाओ के माद्य अंतर पारम्परिक रूप से के(k )-सिलेक्शन और आर(r)-सिलेक्शन को दिया गया है । जबकि यह नियम उतने उपयोगी नहीं हैं । के-सेलेक्शन और आर-सेलेक्शन का पारिभाषिक कारण यह है कि समय के सात जनसंख्या परिवर्तन को सामन्य संयुकरण में कैसे मापें , नए जन्मे बच्चों की परिवर्तन शील सांख्या को आर(r ) पे दिखाया गया है । जबकी पर्यावरण कि ग्राह्य क्षमता जोकि यह है कि परिस्तितिक तंत्र में कितनी इकाइयां रह सकती है उन्हें “के(k )” से दिखाया गया है । इसके अनुसार “r(आर )” “धर” के लिए व्यक्त है , जबकि “k ” जर्मन शब्द “कापाजितात “( क्षमता ) के लिए व्यक्त है । सरल रूप संघीकरण इस तरह दिया जा सकता है :dN/dt=rN (1- N/K), जहा N – जनसँख्या की इकाईयो की प्रारंभी संख्या है और t जनसँख्या परिवर्तन के दौरान मापा गया समय हैं । Verhulst, P.-F. (1838) “ Notice sur la loi que la population poursuit dans son accroissement ”, Correspondance mathématique et physique, 10, pp. 113-121.

इन नियमों का लम्बे समय तक उपयोगी ना होने का एक कारण यह है कि वे एक ऐसे विश्रित सिद्धांत द्वारा जुड़े है जो की ऐसे दावे बनाये है कि कैसे जानवरों के जीवन को क-स्ट्रेटेजी और आर-स्ट्रेटेजी कि तरह वर्गीकृत किया गया हैं । ख़ास तौर पर उनके जीवन के इतिहास को ध्यान मैं रखते हूए । इस व्यापक सिद्धांत के अनुसार, र-रणनितीत्य कम उम्र कि जीवन कि और झुकेंगे , सामान्यज्ञ होंगें , छोटे आकारों वाले , कम उम्र में पुनरुत्पादन , आईस्थायी परिस्तितिक तंत्र में प्रभल ,और अन्य खूबियों के सात उनमे गणत्व आधारित उत्तर जीवित होगी, जबकी k -रणनीतीत्या लम्बी उम्र की जीवन की और झुकेंगे , विष्षेअग्य होंगे , अधिक संख्या वाले , अधिक उम्र में पुनरुत्पादन करने वाले , इस्थाई पारिस्तितिक तंत्र मे प्रभल और गणत्व आधारित नैतिक धर वाले होंगे । यहाँ सिद्धांत के कुछ असंगत जाँच है ।

6 Hurtado-Parrado, C. (2010) “Neuronal mechanisms of learning in teleost fish”, Universitas Psychologica, 9, pp. 663-678 [अभिगमन तिथि 13 मई 2019]. Lopez-Luna, J.; Al-Jubouri, Q.; Al-Nuaimy, W. & Sneddon, L. U. (2017a) “Reduction in activity by noxious chemical stimulation is ameliorated by immersion in analgesic drugs in zebrafish”, Journal of Experimental Biology, 220, pp. 1451-1458 [अभिगमन तिथि 19 अगस्त 2019]. Lopez-Luna, J.; Al-Jubouri, Q.; Al-Nuaimy, W. & Sneddon, L. U. (2017b) “Impact of stress, fear and anxiety on the nociceptive responses of larval zebrafish”, PLOS ONE, 12 (8) [अभिगमन तिथि 14 अक्टूबर 2019]. Lopez-Luna, J.; Al-Jubouri, Q.; Al-Nuaimy, W. & Sneddon, L. U. (2017c) “Impact of analgesic drugs on the behavioural responses of larval zebrafish to potentially noxious temperatures”, Applied Animal Behaviour Science, 188, pp. 97-105. Lopez-Luna, J.; Canty, M. N.; Al-Jubouri, Q.; Al-Nuaimy, W. & Sneddon, L. U. (2017) “Behavioural responses of fish larvae modulated by analgesic drugs after a stress exposure”, Applied Animal Behaviour Science, 195, pp. 115-120.

7 एक वर्ष से कम उम्र वाले हिरणो कि वार्षिक उत्तर जीविता धर ०.३१ थी , एक से दो वर्ष की बीच माताओं के लिए ०. ८० थी, एक से दो वर्ष के बीच नरों के लिए ०. ४१ थी., दो वर्ष से ऑफ अधिक उम्र के लिए अधिक माताओं केलिए ०. ७९ , और दो वर्ष से अधिक नर के लिए ०. ४७ थी । Nelson, M. E. & Mech, L. D. (1986) “Mortality of white-tailed deer in Northeastern Minnesota”, Journal of Wildlife Management, 50, pp. 691-698.

8 Wolfe, M. L. (1977) “Mortality patterns in the Isle Royale moose population”, American Midland Naturalist, 97, pp. 267-279 [अभिगमन तिथि 31 मई 2014].

9 Clutton-Brock, T. H.; Price, O. F.; Albon, S. D. & Jewell, P. A. (1992) “Early development and population fluctuations in Soay sheep”, Journal of Animal Ecology, 61, pp. 381-396 [अभिगमन तिथि 12 मई 2014]. जबकी यहाँ भेढ़ के बच्चो और एक वर्षीय बच्चों कि बजाय वयस अधिक हो सकते हैं , इस अध्ययन द्वारा व्यात होता है कि व्यापक रूप में यह विश्वास अपूण है कि मौत के समय जंगल में जानवर सामान्य रूप से बूढ़े और भीमार होते हैं ।

10 Sullivan, K. A. (1989) “Predation and starvation: Age-specific mortality in juvenile juncos (Junco phaenotus)”, Journal of Animal Ecology, 58, pp. 275-286 [अभिगमन तिथि 29 मई 2014].