मत्स्य खेतों में पीड़ा सही जाने वाली (जिससे जानवर पीड़ित होते हैं) बीमारियां
Closeup of a small fish's head held between human fingers, showing a diseased mouth.

मत्स्य खेतों में पीड़ा सही जाने वाली (जिससे जानवर पीड़ित होते हैं) बीमारियां

यहां तक कि जानवरों की सुरक्षा के साथ उन सरोकारों के बीच, मत्स्य खेतों में जानवरों की दुर्दशा के प्रति अजागरुक होना असामान्य नहीं है, बावजूद इसके इन जगहों पर जानवर महत्वपूर्ण हानि (चोट, अहित) से पीड़ित हो सकते हैं। हानियों के महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैं, वे कई बीमारियां हैं जिससे वे पीड़ित हो सकते हैं, जिनमें से कुछ अतिपीड़ादायक और जानलेवा हैं। इसके अतिरिक्त, ये बीमारियां अक्सर जंगल में रहने वाले दूसरे जानवरों तक फैलती हैं, उन्हें नुकसान भी पहुंचाती हैं। इसके साथ ही, जानवरों को दिए जाने वाले प्रतिजैविक (एंटीबायोटिक्स) दुष्प्रभावों के कारण उनके लिए नुकसानदायक हो सकते हैं, और जंगल में दूसरे जानवरों को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं।

मत्स्य खेतों में, कई तरह के जानवर पाले जाते हैं। यहां हम मछलियों और परूषकवची द्वारा झेली (उन्हें पीड़ित करने वाली) जाने वाली बीमारियों की जांच करेंगे। (बीमारी के कारण जानवरों के पीड़ित होने के अन्य तरीकों के बारे और जानने के लिए जमीनी खेतों पर रहने वाले जानवरों द्वारा सही जाने वाली बीमारियां, देखें।)

बीमारियां जिनसे मछलियां पीड़ित होती हैं

जमीनी खेतों की तरह ही, मत्स्य खेतों में यहां मछलियों के स्वास्थ्य के प्रति बहुत सामान्य संकट (ख़तरे) हैं, रोगजनकों जैसे जीवाणुओं, विषाणुओं और परजीवियों के कारण होने वाली परेशानियों सहित। ये खेतों में बहुत अधिक सघनता से पाए जा सकते हैं (यहां तक कि यदि वे प्रकृति में पाए जाते हैं)। जैसा कि स्थलीय जानवरों के साथ होता है, यह तथ्य कि खेत काफ़ी भीड़ भरे होते हैं, बीमारियों के फैलने को बहुत सहज बना देता है। इस संबंध में विषाणुजनित संक्रमण ख़ासतौर पर ख़तरनाक हैं, जबकि जो मछलियां अपने संक्रमण से बच जाती हैं वे विषाणु लेकर उन्हें असंक्रमित जानवरों में संचारित कर सकती हैं, यहां तक कि यदि वे लक्षण न प्रदर्शित करें।

इसके साथ ही, जानवरों के वातावरण में विद्यमान रसायन उनकी त्वचा और स्लेष्मा झिल्ली में जलन पैदा कर सकते हैं, उन्हें रोगाणुओं के प्रति बहुत ग्रहणशील बनाते हैं, उसी प्रकार से जब वे घावों से पीड़ित होते हैं।

कुछ जीवाणु इन मछलियों के पाचन तंत्र में आमतौर पर रहते हैं, उन्हें बिना कोई नुकसान पहुंचाए, और असल में कुछ मामलों में लाभदायक होते हुए। हालांकि, तनाव की स्थिति में, ये जीवाणु जानवरों के लिए हानिकारक हो सकते हैं और वास्तव में गंभीर संक्रमणों के कारण होते है।

इसके अलावा, अक्सर उन्हें भोजन दिया जाता है जो स्वास्थ्य परक नहीं होता। यह उन्हें तेज़ी से बड़ा करता है लेकिन स्वास्थ्य परेशानियों का कारक होता है, जैसे लिपिड आंत का अधः पतन, एक स्थिति है जिससे मछलियां पीड़ित होती हैं, अन्य मछलियों और परूषकवची उच्च घनत्व वाले वसा और कार्बोहाइड्रेट के रूप में भोज्य पदार्थ की तरह खिलाए जाने के कारण।

मछलियां प्रॉटोजोआ, कोपोड्स या अन्य मछलियों के उन पर परजीवन करने सहित कई कारकों के साथ बीमारियों से पीड़ित हो सकती हैं। विषाणु, जीवाणु, फंगस मत्स्य कृषि में मछलियों पर हमला करने वाले सबसे सामान्य जीवाणु सामान्य विब्रियो, एईमोनास या रेनीबैक्टीरिया के साथ अन्य हैं।1 एक महत्वपूर्ण जीवाणु बीमारी एंट्रिक सेप्टीसीमिया है, जो बैक्टीरिया इडवार्डशीला इक्तालरी द्वारा होती है। कैटफिश को ख़ासतौर से प्रभावित करती है, यह यू एस ए और दुनिया के और हिस्सों में बहुत सामान्य है।

विषाणुओं के अन्तर्गत जो मत्स्य खेतों में मछलियों पर हमला करते हैं, आमतौर पर बर्णविरीडे, हब्दो विरीडे, और इब्दोवीरीडे में से होते हैं , जो सभी गंभीर स्थितियों के कारक हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, संक्रामक पनक्रेटिक नेक्रोसिस सेलमोनिड्स को प्रभावित करते हैं और, बेहद जानलेवा (घातक) हो सकते हैं।(जानवरों की दी गई जनसंख्या के 90% तक को प्रभावित करते हुए) । बर्णविरीडे अन्य जानवरों जैसे बसेस और टर्बॉएड्स के अन्तर्गत भी पाए जा सकते हैं। दूसरी बहुत सामान्य बीमारी कार्प को होने वाली प्रिंग विरेमिया है, जो कई प्रकार के कार्प को दुनिया के कई हिस्सों में प्रभावित करती है और हाब्दोवायरस के कारण होती है। अन्य विषाणुजन्य बीमारी, जिसके जंगली जानवरों पर महत्वपूर्ण प्रभाव हैं इल हाब्दोवायरस बीमारी है।

इन ख़तरनाक विषाणुओं के अलावा, ये जानवर बड़े पैमाने पर परजीवियों के कारण पीड़ित हो सकते हैं। मत्स्य खेतों की स्थितियों और इन जानवरों को उच्च घनत्व में रखे जाने के कारण, परजीवी काफ़ी बड़ी संख्या में होते हैं, और न केवल मछलियों के स्वास्थ्य के लिए बड़ा ख़तरा हैं बल्कि उन्हें बहुत दर्द भी पहुंचा सकते हैं।2

उदाहरण के लिए, सैलमन में समुद्री जुएं का संक्रमण उन्हें बड़े पैमाने पर पीड़ित कर सकता है, हालांकि, वयस्क सैलमन संक्रमण से बच सकते हैं। दूसरी ओर जुनेविल सैलमन पतली त्वचा वाले होते हैं और समुद्री जुएं के आक्रमण से और भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं,3
असल में इन संक्रमणों के कारण अक्सर वे मर जाते हैं।

यहां कई अलग परिवर्तनशील कारक शामिल हैं कि मत्स्य खेत में मछलियों की आबादी में एक बिमारी कैसे फ़ैल सकती है। विषाणु कितना विषैला है जो बीमारी के लिए ज़ाहिर है, मुख्य घटक है, किन्तु यहां ध्यान देने के लिए अन्य हैं। प्रारंभिक रूप में वे जानवरों की बीमारी के प्रति प्रतिरोध को लेते हैं जो कि उनके प्रतिरोधक तंत्र की स्थितियां हैं, साथ ही साथ वे कितने तनावग्रस्त और कमज़ोर हैं। निश्चित रूप से यह अलग – अलग इकाइयों के बीच बदल सकता है, मत्स्य खेतों में यहां कई सामान्य प्रवृत्तियां हो सकती है। साथ ही, पानी की गुणवत्ता और पर्यावरण जिसमें मछलियां रखी गई हैं, बीमारी के आसार को प्रभावित करता है। ज़ाहिर है, भीड़ भरी स्थितियां, बीमारी के फैलाव को बढ़ाती और यहां तक कि तेज़ी प्रदान करती है।

इसके अलावा, मत्स्य खेतों में बीमारियों के फैलने की समस्या यह है कि वे केवल रोगाणुओं जो कि खेतों के स्थानीय क्षेत्रों के निवासी हैं, के कारण नहीं हैं, बल्कि उनमें से कई स्थानीय रोगाणुओं के कारण अन्य क्षेत्रों में होते हैं जहां वे ख़ास क्षेत्रों से अन्य इलाकों में फैले हैं। यह मत्स्य खेतों में स्थितियों के कारण है जो बीमारी के फैलने को बहुत बढ़ाता है जिससे वे विश्व के बड़े क्षेत्रों तक फैलते हैं। परिणामस्वरूप, अंततः जंगल में रहने वाले जानवर संक्रमित हो सकते हैं। क्योंकि सकता है उनमें अनजानी बीमारियों के विरुद्ध बचाव ना हो, ये जानवर अक्सर बड़े पैमाने पर हानिग्रस्त (उन्हें नुकसान पहुंचना) होते हैं।

एंटीबायोटिक्स (प्रतिजैविक) और अन्य दवाइयों और रसायनों द्वारा बीमारियों के उपचार का भी जंगल में रहने वाले जानवरों पर दुष्प्रभाव है।

नीचे अलग – अलग बीमारियां दी गई है जिससे मछलियां पीड़ित होती है, प्रकृति और ख़ासतौर से मत्स्य खेतों दोनों में।

बैक्टीरियल किडनी रोग सेरेटमुक्सोसिस चैनल कैटफिश विषाणु बीमारी
ईल र्हब्दोवयरस रोग आंतरिक रेडमाऊथ कैटफिश का आंतरिक सेप्टीसीमिया
एपिज़ोओटिक हेमोटीपोएटिक नेकररोसिस एपिज़ोओटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम फ्लेक्सी बैक्टरियोसिस
फुरुंकलोसिस गैरोडेक्टीलोसिस इच्ठियो थिरैसिस
इंफेक्शियस हैमोपोएटिक नेक्रोसिस इन्फेक्शियस पैंक्रियाटिक नेक्रोसिस सैल्मन एनीमिया संक्रमण
कोई हर्पीसवैरस रोग लैक्टोकोकोसिस
ऑनकोरहिंकुस मसौ वायरस रोग साल्मन की पैंक्रिअटिक रोग पासटेरेलोसिस
पैक फ्राई कि र्हब्दोवयरस रोग प्रोलीफेरटिव किडनी रोग रेड सी ब्रीम इरिडीवायरल बीमारी
ट्राउट कि नींद की बीमारी केकडों की स्प्रिंग विरेमिया स्टरेप्टो कोसिकोसिस
ट्राउट फ्राई सिंड्रोम विब्रीयोसिस
वायरल एरिट्रोसिटिक नेक्रोसिस रोग वायरल हैमोराजिक सेपटीसेमिया सफेद स्टरजन इरिडीवायरल बीमारी

परुषकवची द्वारा सही (झेली) जाने वाली बीमारियां

परूष कवची भी बीमारियों की एक लंबी श्रृंखला द्वारा पीड़ित हो सकते हैं को कि खेतों में बड़े पैमाने पर घातक हो सकते हैं। विषाणु जनित संक्रमण जो कि इरिडोविरीडे, रियोविरिडे और पिकोर्नाविरिडे के साथ अन्य सहित परुष कवची को प्रभावित कर सकते हैं। ये विषाणु अंधेपन का कारण हो सकते हैं और उनके व्यवहार को भी प्रभावित करते हैं जो अनिश्चित ही सकते हैं। संक्रमित जानवर तब कई कारणों में से किसी भी कारण से मर सकते हैं, जिसमें श्वसन संबंधी परेशानियां और उनके परासरण नियमन की परेशानियां (उनके शरीर में तरल पदार्थ के परासरणी दबाव के नियमन से जलीय तत्व का नियमन से जलीय तत्व का नियंत्रण) शामिल हैं।4

वे अमीबा5 और प्रोटोजोआ6 जैसे जो हब्लोसपोरिडोसिस के कारण होते हैं साथ ही साथ फंगस (उदाहरण के लिए आमतौर पर फ्यूजरियम या लगेनिडियम द्वारा होने वाले7) के सहित परजीवियों द्वारा भी संक्रमित हो सकते हैं। ये परजीवी इन जानवरों की आबादी के बीच महत्वपूर्ण संख्या में मौतों का कारण हो सकते हैं।

व्हाइट स्पॉट सिंड्रोम बाकुलोवायरस कॉम्प्लेक्स पिनाइड झींगों में होने वाली एक सामान्य स्थिति है।8 इसका यह नाम इसलिए है क्योंकि संक्रमित जानवर अपने कवचों पर सफेद धब्बे प्रदर्शित करते हैं। यह बीमारी कुछ दिनों में इन झींगों की समस्त आबादी को मार सकती है। यह अलग – अलग प्रजातियों से जानवरों पर आक्रमण करते हैं और वर्तमान में प्रशांत महासागर के आसपास के देशों में बड़े पैमाने पर फैले हैं।

बड़े टाइगर झींगे यलो हेड बीमारी के नाम से जानी जाने वाली एक बहुत ख़तरनाक बीमारी से पीड़ित होते हैं जो उन्हें चार घंटे से भी कम समय में मार सकती है।9 जब वे इस बीमारी से पीड़ित होते हैं, तो संक्रमित झींगों का सेफलोथ्रॉक्स नाटकीय रूप से उनके मारने से पहले विस्तृत रूप से खिलाने के समयावधि के बाद पीला हो जाता है।

ट्राई सिंड्रोम विस्तृत रूप से फैली दूसरी बीमारी है जो झींगों की उस प्रजाति को प्रभावित करती है जिनकी इकाइयां आमतौर पर दुनिया के कई अनेक हिस्सों में पैदा की जाती हैं। यह बीमारी तेज़ी से फैलती है, और पहले ही दुनिया के कई हिस्सों में पहुंच चुकी हैं – अफ्रीका और एशिया तक के क्षेत्रों में मामले दर्ज़ किए गए हैं।

अन्य स्थिति जिसने काफ़ी ध्यान खींचा है, वह है संक्रामक हाइपोडर्मल और हेमाटो पोयटिक नेक्रोसीस, जिसने प्रशांत महासागर के पानी में कई जानवरों को प्रभावित किया है (मछली कारखानों और जंगल दोनों में)। यह एक बहुत घातक बीमारी है जो पश्चिमी नीले झींगों की आबादी में 90% तक के जानवरों को मार सकती है, साथ ही साथ सफेद पैरों वाले झींगों के बीच अन्य कई हानियों का कारक हो सकती है (उदाहरण के लिए गंभीर विकृतियों सहित)।

अन्य बीमारियां जिनसे खेतों में परुष कवची पीड़ित होते हैं, घातक हो सकती हैं, उनमें क्रेफिश प्लेग (इफानोमैसेस एस्टकी), टेट्रोहेड्राल बाकुलोवायरस (बाकुलोवायरस पिनाई), स्फेरिकल बाकुलोवायरस (पिनाओस मोनोडोंटाइप बाकुलोवायरस), केकड़ों की शिरिनोलिटिक फंगल डिज़ीज़ (ब्लैक मैट सिंड्रोम), और संक्रामक हाइपोडर्मल और हेमाटोपोयटिक नेक्रोसिज (आई एच एच एन वी) और अन्य शामिल हैं।


आगे की पढ़ाई

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नोट्स

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2 See for instance: Glover, K. A.; Nilsen, F. & Skaala, O. (2004) “Individual variation in sea lice (Lepeophtheirus salmonis) infection on Atlantic salmon (Salmo salar)”, Aquaculture, 241, pp. 701-709; Johnson, S. C.; Treasurer J. W.; Bravo, S.; Nagasawa, K. & Kabata, Z. (2004) “A review of the impact of parasitic copepods on marine aquaculture”, Zoological Studies, 43, pp. 229-243; Revie, C. W.; Gettinby, G.; Treasurer, J. W.; Grant, A. N. & Reid, S. W. J. (2002) “Sea lice infestations on farmed Atlantic salmon in Scotland and the use of ectoparasitic treatments”, Veterinary Record, 151, pp. 753-757.

3 Morton, A.; Routledge, R.; Peet, C. & Ladwig, A. (2004) “Sea lice (Lepeophtheirus salmonis) infection rates on juvenile pink (Oncorhynchus gorbuscha) and chum (Oncorhynchus keta) salmon in the nearshore marine environment of British Columbia, Canada”, Canadian Journal of Fisheries and Aquatic Sciences, 61, pp. 147-157.

4 Bonami, J. R. (1997) “Crustacean viral diseases: Recent developments”, Bulletin of the European Association of Fish Pathologhists, 17, pp. 188-190. Nash, M.; Nash, G.; Anderson, I. G. & Shariff, M. (1988) “A reo-like virus observed in the tiger prawn, Penaeus monodon Fabricius from Malaysia”, Journal of Fish Diseases, 11, pp. 531-53. Lightner, D. V. & Redman, R. M. (1993) “A putative iridovirus from the penaeid shrimp Protrachypene precipua Burkenroad (Crustacea: Decapoda)”, Journal of Invertebrate Pathology, 62, pp. 107-109.

5 Sawyer, T. K. (1976) “Two new crustacean hosts for the parasitic amoeba Paramoeba perniciosa”, Transactions American Microscopical Society, 95, p. 271.

6 Sawyer, T. K. & MacLean, S. A. (1978) “Some protozoan diseases of decapod crustaceans”, Marine Fisheries Review, 40, pp. 32-35 [अभिगमन तिथि 12 फ़रवरी 2020].

7 Miller, J. D. & Fleming, L. C. (1983) “Fungi associated with an infestation of Pseudocarcinonemertes homari on Homarus americanus”, Transactions of the British Mycological Society, 80, pp. 9-12.

8 Chou, H.-Y.; Huang, C.-Y.; Wang, C.-H.; Chiang, H.-C. & Lo, C.-F. (1995) “Pathogenicity of a baculovirus infection causing white spot syndrome in cultured penaeid shrimp in Taiwan”, Diseases of Aquatic Organisms, 23, pp. 165-173 [अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2020]. Corbel, V.; Zuprizal, Z.; Shi, C.; Huang, S.; Arcier, J.-M. & Bonami, J.-R. (2001) “Experimental infection of European crustaceans with white spot syndrome virus (WSSV)”, Journal of Fish Diseases, 24, pp. 377-382.

9 Lu, Y.; Tapay, L. M.; Loh, P. C.; Brock, J. A. & Gose, R. B. (1995) “Distribution of yellow-head virus in selected tissues and organs of penaeid shrimp Penaeus vannamei”, Diseases of Aquatic Organisms, 23, pp. 67-70 [अभिगमन तिथि 15 अप्रैल 2020].