हम क्यों जीवित प्राणियों की बजाय संवेदनशील प्राणियों को महत्व दें
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हम क्यों जीवित प्राणियों की बजाय संवेदनशील प्राणियों को महत्व दें

यहाँ कई पर्यावरणविद पदाधिकारी हैं जो संवेदनशील प्राणियों को बराबर का सम्मान देने का विरोध करते हैं । इस दृष्टिकोण को सही साबित करने के लिए दिए जाने वाले तर्क़ व्यापक रूप से अलग़ – अलग़ हो सकते हैं क्योंकि पर्यावरणविद अवलोकन इस बात पर एक मत नहीं हैं की प्राकृतिक संसार में कौन सा अंश सबसे अधिक नैतिक महत्व के योग्य है और इस प्रकार सम्मान के योग्य भी । कुछ दृष्टिकोण संवेदनशील प्राणियों की बजाय पारिस्थितिक तंत्र माननीय हो ऐसा दावा करते हैं । दूसरे ऐसा दावा करते हैं की व्यक्तिगत मान की बजाय नस्लें माननीय हों

लोकप्रिय पर्यावरणीय सिद्धांतों में से एक बायोसेंट्रिस्म, दावा करते हैं कि हम जीवन के हरेक रूप का सम्मान करें । जो कोई भी इस दृष्टिकोण की वक़ालत करता है उसकी मांग है कि जीवित रहना एकमात्र स्थिति है जो कि सम्मान के क्रम में शामिल होना चाहिए । यदि कोई वस्तु ज़िंदा है तो किसी भी तरह की ख़ास अपेक्षा किये बिना, अपने आप में उसका महत्व है । 1 अर्थात सम्मान केवल संवेदनशील जीवों के लिए ही नहीं बल्कि सभी जीवित वस्तुओं के लिए है । प्रारंभ में बायोसेंट्रिस्म आकर्षक लगता है, लेकिन नीचे दिए गए तर्क़ ये दर्शाते हैं कि क्यों यह अत्यधिक सन्देहास्पद है ।

 

संवेदनशील प्राणियों को हम क्यों बचाएं

क्या हमारे क्रियाकलाप संवेदनशील प्राणियों को प्रभावित कर सकते हैं ? यही मूल रूप से मायने रखता है, और इस पक्ष को समर्थन करने के कई कारण हैं ।

निम्नलिखित उदहारण पर ध्यान दें, मान लीजिये आपकी दुर्घटना हुई और दिमाग़ी चोटों से जूझने के कारण अपरिवर्तनीय रूप से आपने चेतना खो दी । यहाँ पूर्ण रूप से कोई उम्मीद नहीं है कि आप कभी जागेंगे । आपके पास दिमाग़ नहीं है मग़र आपका शरीर ज़िंदा है । क्या इस तरह के जीवन का आपके किये कोई महत्व या मूल्य है ? उदाहरण के लिए, क्या आपको ऐसा लगता है कि आपके रिश्तेदारों को आपके शरीर को ज़िंदा रखने के लिए सार्थक प्रयास और निज़ी रूप से त्याग करना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे यदि आपकी चेतना मौजूद होती और आपको ज़िंदा रखने के लिए विशेष देखभाल की ज़रूरत होती ।

हममें से ज़्यादातर लोग मानते हैं की इन प्रश्नों का स्पष्ट जवाब है ”नहीं ”, ऐसा इसलिए क्योंकि हम समझते हैं कि वास्तविक रूप सकारात्मक अनुभवों का होना हमारी ज़िन्दगी को महत्वपूर्ण बनता है (और इसीलिए मृत्यु एक क्षति है )

यह दर्शाता है कि संवेदन (चेतना ) होना महत्वपूर्ण है, न कि केवल जीवित रहना । और इसी वजह से बायोसेंट्रिस्म अस्वीकार्य होना चाहिए । इसकी बजाय हमें केवल संवेदनशील प्राणियों के प्रति चिंतित होना चाहिए ।

 

केवल जीवित रहना नहीं बल्कि संवेदनशील होना महत्व रखता है

बायोसेंट्रिस्टस ऐसा दावा करते हैं कि, चेतना की नैतिक प्रासंगिकता का बचाव करने के लिए बनाये गए दावों को ख़ारिज करने के कई कारण हैं । उदहारण के लिए, वे कहते हैं कि सभी जीवित प्राणियों का आतंरिक मूल्य इस बात में निहित है कि जीवित रहना अपने आप ही उन्हें ”जीने की इच्छा” देता है । इसलिए उन्हें मानवीय क्रिया द्वारा कष्ट नहीं दिया जा सकता । 2 इसका अभिप्राय यह है कि इस ”जीने की इच्छा” को ध्यान में रखते हुए जीवन के सभी रूपों का सम्मान करने से परहेज करना होगा ।

सभी जीवित वस्तुओं के आतंरिक मूल्य को समर्थन देने का एक और विवेकपूर्ण तरीका, ये कहना होगा कि वे ” अपनी -अपनी उपयोगिता के साथ प्रकृति का सृजन” हैं, एक जैविक उपयोगिता जो सभी जीवित प्राणी प्राप्त करते हैं,यहाँ तक कि यद्यपि हो सकता है की वे इसके प्रति जागरूक न हों । यदि जीवित वस्तु के लिए कुछ अच्छा होने की उम्मीद है और इंसानी हस्तक्षेप उस उम्मीद पर कोई बुरा प्रभाव डाल सकती हैं तो इंसानों को ऐसा न करके उस जीवित वस्तु का सम्मान करना चाहिए । 3

हमें ये देखने कि ज़रूरत है कि ये मानदंड बायोसेंट्रिस्म के समर्थन की समीक्षा के लिए कितना टिकते हैं ।

निश्चित रूप से, यदि एक पदार्थ को जीने की इच्छा है तो नैतिकता के तौर पर हम उसकी इच्छा को विचार में रख सकते हैं, मग़र इसे जीवन के कुछ पहलुओं पर लागू करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस इच्छा को केवल केवल रूपक के मामले में ही पूर्ण रूप से समझा जा सकता है ।

एक चेतनाहीन जीवित वस्तु जैसे कि एक पेड़ है , इस पर विचार करें । एक पेड़ को किस रूप में जीने की इच्छा हो सकती है ? हम कह सकते हैं कि जीवित रहने के लिए इसकी निश्चित जैविक ज़रूरतें हैं और उन्हें प्राप्त करने के लिए ये ज़मीन से जल और पोषक तत्व ग्रहण करते हैं लेकिन क्या हम ये कह सकते हैं कि एक महत्वपूर्ण जैविक ज़रूरत को प्राप्त करने का प्रयास ”जीने की इच्छा” है ? नहीं, बिलकुल नहीं । केवल लाक्षणिक से । ऐसा इसलिए क्योंकि एक इच्छा के लिए, यहाँ तक कि इसके हल्के अर्थों में भी (अर्थात एक रुचि) सचेतन अनुभवों के होने की दक्षता ज़रूरी है । यदि कोई वस्तु अपनी चेतना खो देती है तो वह वस्तु उन घटनाओं का अनुभव नहीं करती जो उसके साथ घटित होती हैं ।

एक वस्तु में कुछ होने या कुछ करने की चाहत नहीं हो सकती जो जब तक कि वह उसका अनुभव न कर सके । केवल संवेदनशील प्राणी इस आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं । उनके पास जीने की एक इच्छा है क्योंकि जीवित रहना उन्हें ज़िन्दगी द्वारा दिए गए सकारात्मक फायदों को अनुभव करने की सम्भावना की पुष्टि करता है । इसका मतलब यह है कि केवल ज़िंदा रहना ही जीने की इच्छा होने के लिए पर्याप्त नहीं है । सकारात्मक और नकारात्मक अनुभवों को ग्रहण करने (अर्थात संवेदनशील होना) की क्षमता भी एक ज़रूरी शर्त है ।

असंवेदनशील वस्तुओं में यदि सचेतन अनुभव उपलब्ध न हो, तो किस तरह उस वस्तु के पास ”अपनी कोई उपयोगिता ” हो सकती है ? यदि कोई हो । ऐसा प्रतीत होता है कि वस्तु की अपनी कोई उपयोगिता होने के क्रम में, जीवन को सकारात्मक या नकारात्मक रूप में अनुभव करने की दक्षता होना आवश्यक है । असंवेदनशील वस्तुओं की अपने लिए कोई उपयोगिता नहीं हो सकती क्योंकि पूर्ण रूप से चीज़ें उनके लिए अच्छी या बुरी नहीं हो सकतीं ।

अभी भी यह तर्क़ किया जा सकता है कि सभी चीज़ों के पास अपने आप के लिए एक उद्देश्य है यहाँ तक कि यदि वे इससे अनजान हैं तब भी । एक जीवित वस्तु का उद्देश्य एक जैव तंत्र के रूप में फलना – फूलना और विकसित होना हो सकता है, वह वस्तु इसका अनुभव ना कर पाए तो भी ।

मग़र, यदि एक वस्तु अपनी उपयोगिता या उद्देश्य को महसूस नहीं सकती तो यह उद्देश्य उसका अपना कैसे हो सकता है? ऐसा लगता है कि उस वस्तु के लिए क्या लाभदायक है, इसकी बजाय किसी अन्य वस्तु के लिए वह किस प्रकार उपयोगी है, इस बात पर उसका उद्देश्य निर्धारित है । उदाहरण के लिए, कुछ लोग इस पर विचार कर सकते हैं क्योंकि पारिस्थितिक तंत्र पर इसका प्रभाव या प्राकृतिक छटा की ख़ूबसूरती के लिए वस्तु का फलना – फूलना (जैसे कि एक पेड़) तार्किक रूप से अच्छा है, किन्तु इसका अर्थ ये नहीं है कि यह स्वाभाविक रूप से ठीक नहीं है । असंवेदनशील वस्तुओं का हित या अहित उतना नहीं हो सकता जितना कि निर्जीव वस्तुओं का । क्योंकि यदि मैं एक मेज़ को ठीक कर रहा हूँ, इसका मतलब ये नहीं है की मेज़ को इससे कोई लाभ हो रहा है या उसका कोई उद्देश्य पूरा हुआ ।

वैसे ही, हालाँकि एक पेड़ को जीवित रखने में एक उद्देश्य हो सकता है, लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि ज़िंदा रहने में पेड़ का अपना कोई उद्देश्य है । ऐसा इसलिए क्योंकि ज़िंदा रहना जीवित वस्तुओं को जीने की इच्छा या अपना कोई उद्देश्य नहीं देता है – केवल सचेतन ही यह कर सकते हैं – मात्र जीवित रहने के आधार पर जीवन के सभी रूपों को महत्व देना आवश्यक रूप से अस्वीकार्य होना चाहिए ।

 

रुचियों में द्वंद्व पैदा करने के कारण बायोसेंट्रिस्म स्वीकार करने योग्य नहीं है

जीवित रहने का मापदंड केवल पौधों और जन्तुओं से पूरा नहीं होता बल्कि जीवाणु और सूक्ष्मजीवों से भी होता है । इस प्रकार, जीवन के अलग़ – अलग़ रूपों के बीच रुचियों का द्वंद्व हमेशा रहने वाला है । आपका हाथ धोना या घाव पर अल्कोहल लगाना अत्यधिक परेशानी का कारण हो सकता है क्योंकि ऐसा करना एक बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीवों के जीवन की उपेक्षा करना होगा ।

किन्तु महत्वपूर्ण रूप से, यदि हम बायोसेंट्रिक मानदंड को को स्वीकार करें, तो हम इस रास्ते पर होंगे जिसे अलग़ मानदंड को ध्यान में रखने वाले लोग अस्वीकार्य पाएंगे । उदाहरण के लिए बात ऐसी है कि, जिस किसी का भी ये विचार है कि संवेदनशील (या सचेतन) प्राणियों जीवों को सम्मान देना चाहिए, वो यह है कि ऐसे प्राणी जिनमे अपनी भलाई या सुख अनुभव करने की दक्षता हो ।

कल्पना करें कि एक जानवर जीवाणु- सम्बन्धी संक्रमण से जूझ रहा है । जीवाणु शरीर में तेज़ी से बढ़कर गंभीर बीमारी का कारण बनता है । यहाँ प्रतिजैविक (एंटीबायोटिक) द्वारा एक प्रभावी उपचार उपलब्ध है । हालाँकि अस्पताल की नीतिपरक समिति द्वारा बायोसेंट्रिक मापदंड अपनाया जा चुका है जिसके माध्यम से जानवर की बजाय जीवाणु को महत्व दिया जायेगा । इसका अर्थ है कि संक्रमण का उपचार नहीं होगा, जबकि यह एक बड़ी हत्या का संकेत है फ़िर भी जानवर संक्रमण को झेलता हुआ छोड़ दिया जायेगा जब तक कि वह मर ना जाये ।

यदि हम सोचते हैं कि केवल जीवित रहने के आधार पर जीवन के सभी रूपों का सम्मान करना चाहिए तो हमें नीतिपरक समिति के निर्णय पर आपत्ति नहीं करनी चाहिए । वास्तव में, हमें इसकी सराहना करनी चाहिए । इसके विपरीत यदि हम सोचते हैं कि इस निर्णय में जानवर के हित को अहमियत देनी चाहिए और इस तरह उसकी परेशानी और मृत्यु टल सकती थी, तो हम पहले ही बायोसेंट्रिस्म से दूर हो जाते हैं । हम यह स्वीकार करते हैं कि नैतिक रूप से विचारणीय होने के लिए जीवन अपने आप में पर्याप्त कसौटी नहीं है ।

 

बायोसेंट्रिस्म मानवकेंद्रवाद (अन्थ्रोपोसेंट्रिस्म) के अधीन है

बायोसेंट्रिस्म की कमी स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है जब हम इसकी परख़ मानवीय रुचियों के आधार पर करते हैं । कल्पना करें की बायोसेंट्रिक अस्पताल में संक्रमित जानवर एक मनुष्य है । यदि बायोसेंट्रिक मापदंड ग़ैरमानवीय चीज़ों पर लागू होता है तो यह मानवजाति पर भी लागू होना चाहिए । एक प्राणी के लिए ”वह जीवित है”, इस तथ्य के आधार पर उसका सम्मान तय होना चाहिए । इसकी परवाह किये बिना कि वह किस जैव प्रजाति से सम्बंधित है । अतः बायोसेंट्रिस्म के अनुसार हमें मानवजाति की बजाय बड़ी संख्या में जीवाणुओं को अहमियत देनी चाहिए और ना केवल इस विशेष मामले में बल्कि हमेशा ही मानवीय रुचियों के साथ अन्य जीवित वस्तुओं की रूचि का द्वंद्व रहा है और अंत में जो सांख्यिक रूप से अधिक है वह अपने से कम वाले पर हावी होता है ।

अधिकतर लोगों को यह परिणाम बेतुका लग सकता है । वास्तव में, बायोसेंट्रिस्म के ज़्यादातर समर्थक इसे ख़ारिज करते हैं, 4 बल्कि वे बायोसेंट्रिक मापदंड के साथ एक मानवकेंद्रवाद के मिश्रण का समर्थन करते हैं, इस जगह से एक मिश्रित निर्देश माना जा सकता है, वो यह कि हमें जीवन के सभी रूपों का सम्मान करना चाहिए । इस दौरान मानवजाति की सार्थक रुचियाँ प्रभावित ना हों ।

इस निर्देश को एक मजबूत समर्थन देना बहुत मुश्किल साबित होता है । किसी अन्य नैतिक मापदंड को ध्यान में रखे बिना बायोसेंट्रिस्म के साथ चुनिंदा मानवीय रुचियों को नियमित रूप से मिश्रित करते रहना संभव नहीं है । हालाँकि अन्य नैतिक मापदंड की ओर आकर्षित होना (जैसे कि संवेदनशील), उन प्राणियों को भी (जो कि मनुष्य नहीं हैं) ध्यान में रखने जैसा होगा ; जो कि मापदंड को पूरा भी करता है । यदि मानवीय रुचियाँ बायोसेंट्रिक मापदंड पर हावी हैं तो फ़िर प्राणियों (जो कि मनुष्य नहीं हैं ) की रुचियाँ भी इस पर हावी होंगी । इस आशय को निरस्त करने का अर्थ है कि बायोसेंट्रिस्म का मानवकेंद्रवाद के अधीन होना अनुचित है ।

प्रजातिवाद के विरुद्ध दिए गए तर्क़ दर्शाते हैं कि मानवकेंद्रवाद एक अनुचित रूप से किये गए पक्षपात का रूप है जो हमें आवश्यक रूप से अस्वीकार करना चाहिए । यह संवेदनशील प्राणियों की प्रासंगिकता के पक्ष में तर्क़ के अलावा, दर्शाता है कि क्यों बायोसेंट्रिस्म अवश्य ही ख़ारिज होना चाहिए ।

 

क्यों बायोसेंट्रिस्म के साथ अन्य मापदंडों का मिश्रण निरस्त होना चाहिए

यह तर्क़ किया जा सकता है कि एक संभावित बायोसेंट्रिक स्थिति हो जो कि इन आपत्तियों को नज़रअंदाज़ करते हुए सभी जीवित वस्तुओं को ध्यान में रखते हुए बनी हो, लेकिन संवेदनशील वस्तुओं को विशेष दर्ज़ा दिया हुआ हो । हालाँकि यदि सख्ती से कहें तो इस राय को सही रूप में बायोसेंट्रिक नहीं बोल सकते । यहाँ कोई तरीक़ा नहीं है जिसमें बायोसेंट्रिस्म को, संवेदनशील प्राणियों के हितों पर विशेष ध्यान देने की सलाह दी जा सके; जबकि बायोसेंट्रिस्म केवल जीवित रहने के बारे में है । बल्कि यह दृष्टिकोण बायोसेंट्रिस्म और अन्य मापदंड का मिश्रण हो सकता है, जैसे सचेतन प्राणी ।

संवेदनशील होने की प्रासंगिकता बायोसेंट्रिस्म और सचेतन दोनों की स्वीकार्यता को ध्यान में रखने का दृष्टिकोण नहीं बना सकती । जैसा हम देख चुके हैं, जीवित रहने के तथ्य का मतलब है कि उसकी रुचियाँ हैं । हमारा जीवन हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे हमें सकारात्मक अनुभवों का आभास देती हैं,किन्तु यदि यह सम्भावना पूर्ण रूप से जा चुकी है तो हमारे जीवन का कोई भी महत्व होना समाप्त हो जायेगा । इसी कारण से बायोसेंट्रिस्म असफ़ल है ।

ऐसा मालूम होता है, सचेतन प्राणियों को ध्यान में रखने के साथ बायोसेंट्रिस्म का मिश्रण एक मज़बूत स्थिति में नहीं हो सकता, जबकि यह मिश्रण एक पक्ष के साथ (बाद वाले के) मज़बूत है , (पहले वाले के साथ नहीं) पूरे समीकरण को असार्थक रूप से प्रस्तुत करता है । परिणामस्वरूप, हमें मिश्रित दृष्टिकोण निरस्त करना चाहिए और सभी सचेतन प्राणियों के हितों को ध्यान में रखते हुए सचेतनता के नैतिक महत्व के मापदंड स्वीकार करना चाहिए ।


आगे की पढ़ाई

Agar, N. (1997) “Biocentrism and the concept of life”, Ethics, 108, pp. 147-168.

Agar, N. (2001) Life’s intrinsic value: Science, ethics, and nature, New York: Columbia University Press.

Attfield, R. (1981) “The good of trees”, Journal of Value Inquiry, 15, pp. 35-54.

DesJardins, J. R. (2013 [1993]) Environmental ethics: An introduction to environmental philosophy, 5th rev. ed., Boston: Wadsworth.

Goodpaster, K. E. (1978) “On being morally considerable”, Journal of Philosophy, 75, pp. 308-325.

Himma, K. E. (2004) “Moral biocentrism and the adaptive value of consciousness”, Southern Journal of Philosophy, 42, pp. 25-44.

Taylor, P. (1983) “In defense of biocentrism”, Environmental Ethics, 5, pp. 237-243.


नोट्स

1 Taylor, P. (1986) Respect for nature, Princeton: Princeton University Press. Varner, G. (2002) “Biocentric individualism”, Schmidtz, D. & Willot, E. (eds.) Environmental ethics: What really matters, what really works, Oxford: Oxford University Press, pp. 108-120.

2 Schweitzer, A. (1946 [1923]) Civilization and ethics, 3d ed., London: A. & C. Black.

3 Attfield, R. (1987) “Biocentrism, moral standing and moral significance”, Philosophica, 39, pp. 47-58.

4 उदहारण के लिए ऊपर स्च्वेत्ज़र, अत्तफिएल्ड या वार्नर के कार्य देखे ।